यहाँ जीत-हार मायने नहीं रखती
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आपने मिशन इंपॉसिबल (असंभव लक्ष्य) की बात की। मैं जब आज तीन दिन से ट्रेन में चला आ रहा था, तो मैं सोच रहा था कि, “मैं ये क्यों कर रहा हूँ? मुझे पता है कि ये लड़ाई तो हारी हुई लड़ाई है, कुछ कर नहीं सकते इसमें। फिर दुःख भी है। तो करें क्या? इतनी भी हिम्मत नहीं होती कि आत्महत्या ही कर लें। मरने से भी डर लगता है, तभी यहाँ आते हैं।”
तो फिर आपकी एक वीडियो याद आती है कि जब दस ओवर में ११० चाहिए तो हिट-विकेट थोड़े ही हो जाओगे। तो आचार्य जी पहले दो ओवर कोशिश किए मारने की, चार-पाँच रन प्रति ओवर आए, पर साथ-ही-साथ दबाव पवेलियन से बढ़ता जाए, कीपर भी पीछे से ताने कस रहा है, सामने वाला बैट्समैन भी बोल रहा है कि, “तेरी वजह से हारेंगे, हारेंगे।” फिर बैट्समैन और करे क्या? उस दुःख से बचने के लिए तो कोई लॉफ्टेड-शॉट खेला, आउट। विकेट देकर ही आनी पड़ती है।
आचार्य प्रशांत: विकल्प बताओ न। विकल्प क्या है? साठ गेंदों में ११० बनाने हैं। कैसे पता नहीं ही बन सकते हैं? कैसे पता कभी-भी पहली बार ऐसा नहीं होगा कि नहीं बनेंगे? क्रिकेट का गेम (खेल) अगर मर नहीं गया, तो बिलकुल ऐसा होगा कि हर वो चीज़ जिसकी अभी सिर्फ तुम कल्पना करते हो, वो होकर रहेगी। सीधा-सादा गणित है न? जब ओवर में छह छक्के लग सकते हैं, तो दो ओवर में बारह छक्के भी लग सकते हैं — और कभी तो ऐसा होगा न, कि नहीं होगा? तो फिर चार ओवर में चौबीस छक्के भी लग सकते हैं — कभी तो ऐसा होगा न, कि नहीं होगा? जब कभी हो सकता है, तो आज क्यों नहीं हो सकता?