यदि संसार मिथ्या है तो कर्मयोग का क्या महत्व है?

यदि संसार मिथ्या है तो कर्मयोग का क्या महत्व है?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा सवाल श्लोक क्रमांक पच्चीस से है, जिसमें बताया गया है कि जो ज्ञानी है उसको भी उतनी ही मेहनत करनी चाहिए जितना एक अज्ञानी व्यक्ति मोहवश करता है, या उससे ज़्यादा ही। लेकिन मैं जब अपनेआप को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि मुझमें एक मानसिक आलस्य आने लगा है कि हमेशा ये सोचता हूँ कि जो भी कर्म है, वो अगर मैं नहीं भी कर पा रहा हूँ तो इसका दृष्टा भी तो मैं ही हूँ।

तो मैं अगर इस बात से संतुष्ट हूँ, राज़ी हूँ कि ठीक है, अगर काम नहीं हुआ तब भी ठीक है। तो उस वक़्त इच्छा कैसे जागृत होगी कि काम को पूरा करना है? कृष्ण जैसे कह रहे हैं कि जो ज्ञानी है या ज्ञान के मार्ग में है उसे और ज़्यादा मेहनत करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: यही बात तब कहते हो क्या जब दुख आता है? जब मेहनत सामने आती है तो कह देते हो कि ‘अरे! कुछ खराब भी लग रहा है तो सिर्फ़ मुझे ही तो खराब लग रहा है, मैं ही तो उसका दृष्टा हूँ। वो खराब है नहीं, बस मुझे खराब प्रतीत हो रहा है, मैं ही तो उसका दृष्टा हूँ। तो जो खराब है उसे काहे को ठीक करें? मेहनत की क्या ज़रूरत है?’

मैं पूछ रहा हूँ यही बात तब कहते हो क्या जब दुख आता है? कि दुख है नहीं, मुझे ही तो उसका अनुभव हो रहा है, मात्र मैं ही तो उसका भोक्ता हूँ, तो दुख से हटने का प्रयास क्यों करूँ?

एक काम करो, एक टाँग पर खड़े हो जाओ। और पाँच मिनट बाद तुमसे पूछूँगा कि क्या यह कह पा रहे हो कि ‘दुख है नहीं, मात्र मुझे ही अनुभव हो रहा है? क्योंकि यही तो वेदान्त की शिक्षा है कि ऑब्जेक्टिव रियलिटी कुछ है नहीं। एक सब्जेक्टिव एक्सपीरिएंस हो रहा है, जो बस मुझे ही हो रहा है। तो वास्तव में ये दुख मिथ्या है, मैं एक टाँग पर खड़ा हूँ, खड़ा रहूँगा’ — क्या ये बात कह पाते हो? नहीं कह पाते। तो फिर देख नहीं रहे हो कि इस तरह का विचार सही कर्म से, मेहनत से बचने का झूठा, बेईमान उपाय-भर है?

‘आचार्य जी, आप इतनी बात करते हैं जलवायु परिवर्तन की, सबकुछ तो मिथ्या है। और जबसे पृथ्वी बनी है तब से करोड़ों प्रजातियाँ आकर चली गईं। डायनासोर चले गए, न जाने कितनी प्रजातियाँ चली गईं; कुछ और अगर मिट भी जाएँगी तो क्या होगा? ये तो प्रकृति का चक्र चलता रहता है न प्रभव-प्रलय का।‘

मैं कहूँ, वो बच्चा घूम रहा है आपका, उसकी भी प्रलय कर देते हैं।

‘हाँ! शुभ-शुभ बोलिए।’

मैंने कहा कि जब इस लायक हो जाओ कि खरगोश का बच्चा मरे या अपना बच्चा मरे, दोनों में समभाव से कह पाओ कि सब मिथ्या था, चला गया तो चला गया, सिर्फ़ तब कहना कि सम्पूर्ण जगत मिथ्या है, अगर मिट भी गया तो क्या होता है। ‘संपूर्ण जगत मिथ्या है, बस…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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