यज्ञ का असली अर्थ समझो
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर || ३, ९ ||
यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है, इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, उससे जन्म-मृत्युरूपी बँधन उत्पन्न होता है। अतः हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिए संग दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ९
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आपने एक वीडियो में निराकार की उपासना के विषय में समझाया है कि निराकार की उपासना वास्तव में हो ही नहीं सकती क्योंकि निराकार की उपासना के लिए कहना पड़ेगा कि कोई उपासक भी है। और जो उपासक उपासना कर रहा है, वो तो स्वयं को साकार ही जानता है। तो निराकार उपासना कैसे करेगा वो, जब उपासना स्वयं रूप और आकार माँगती है?
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, उससे जन्म-मृत्युरूपी बँधन पैदा होता है। कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: जो पहली बात कही आपने कि श्रीकृष्ण यज्ञ उपासना पर बहुत ज़ोर दे रहे हैं, लेकिन निराकार की उपासना कठिन, अपितु असंभव होती है। तो इन दोनों बातों में आपस में समायोजन कैसे हो?
यज्ञ क्या है? आपके दूसरे प्रश्न से शुरू करते हैं, पहले का भी समाधान हो जाएगा। यज्ञ क्या है?
यज्ञ का अर्थ है — सम्यक कर्म, शुभ कर्म।
कई अर्थों में ‘यज्ञ’ शब्द प्रयोग होता है, सब अर्थ एक ही ओर संकेत करते हैं। यज्ञ कहता है दान…