मौत से नहीं, अधूरी मौत से डरते हैं हम
हमें मृत्यु का डर नहीं होता, हमें अपूर्ण मृत्यु का डर होता है। मौत से हम इसलिए घबराते हैं क्योंकि अधूरे हैं, जीवन अधूरा है इसलिए मौत डरावनी है, मौत अगर इतनी ही डरावनी चीज़ होती तो बहुतों ने जानते-बूझते, सब समझते मौत का वर्ण क्यों कर लिया होता?
मौत नहीं मुद्दा है, पूर्णता मुद्दा है, मौत तो ऐसा है जैसे घंटी का बजना, घंटी बज गई समय पूरा हुआ,घंटी नहीं डरावनी है, समय का सदुपयोग नहीं किया तब घंटी डरावनी हो जाती है।
दिन बर्बाद मत करो, घंटी में कोई डर नहीं है, सही ज़िंदगी जिओ, मौत परेशान नहीं करेगी।
मौत अगर परेशान करती है तो ये इशारा इस बात का है कि जीवन में खोट है।
ये अपने हाथ की बात नहीं है कि डर मन में रहे या न रहे, ज़िंदगी अगर सही जा रही है तो स्वयं ही वो डर नहीं रहेगा और अगर जिंदगी सही नहीं जा रही तो वो डर रहेगा ही रहेगा।
सही ज़िंदगी क्या है? जो अपनी अपूर्णताओं को पोषण न दे।
इसी तरह का डर होता है किसी और की मृत्यु का डर। कोई है जीवन में जो चला न जाए। दूसरे की मृत्यु का डर इसलिए होता है क्योंकि रिश्ते में अपूर्णता है।
समय इसलिए मिलता है कि जो अपूर्णता की ग्रंथि लेकर पैदा हुआ है वो उस ग्रंथि का विगलन कर पाएँ, अपूर्णता के पार निकल जाएँ, जीवन इसलिए मिलता है।
उस जीवन का सही सदुपयोग करो तो मौत बिल्कुल छोटी चीज़ हो जाएगी और गलत उपयोग करोगे तो मौत ही मौत भर जाएगी।
दूसरे के चले जाने पर भी जो रोते हो वो इसलिए रोते हो कि उसके रहते जो संभावना थी, उस संभावना के साथ तुमने न्याय नहीं किया, जब तक वो था, तब तक उसके साथ वैसे नहीं जिए जैसे जीना चाहिए था तो फ़िर उसके जाने पर हाथ मलते हो कि अवसर बीत गया।
मौत नहीं, अंजिया जीवन सताता है।
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