मौत याद रखो, मौज साथ रखो
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरी प्रवृत्ति कुछ ऐसी है कि ज़्यादातर समय मेरा डर में ही व्यतीत होता है। डर मतलब जो अभी है वो खो जाने का डर, कुछ अनहोनी हो जाने का डर। कृपया इस समस्या से उभरने के लिए कोई मार्गदर्शन दिखाएँ।
आचार्य प्रशांत: डर कभी भी झूठा नहीं होता। डर जो कुछ कह रहा होता है वो बात होती तो ठीक ही है न? इस मामले में डर बड़ा सच्चा जंतु है।
आपको जिस भी चीज़ का डर लगेगा वो कभी-न-कभी तो होनी ही है कि नहीं होनी?
दुनिया में मुझे बताना कौन-सी चीज़ है जो नष्ट कभी हुई नहीं, न होने वाली है? और डर सदा इन्हीं चीज़ों का होता है न — कुछ नष्ट हो जाएगा, कुछ नहीं रहेगा, कुछ छिन जाएगा, कोई उम्मीद टूटेगी, कोई योजना विफल हो जाएगी।
कौन-सी योजना है आदमी की बनाई हुई जो पुरातन काल से आज तक चली ही जा रही है?
सभ्यताएँ मिट गईं, संस्कृतियाँ बह गईं, धर्म ख़ाक हो गए, आदमी का बनाया कुछ बचता नहीं।
इसी बात को जानने वालों ने यहाँ तक कहा है कि ये तो छोड़ दो कि आदमी का बनाया हुआ कुछ बचेगा आदमी ने जिस चीज़ का विचार कर लिया वो तक नहीं बचने वाली।
बाप-रे!
आदमी का निर्माण ही नहीं, आदमी की कल्पना भी शेष नहीं रह जाने वाली है। सिर्फ वही नहीं जिसके आप रचयिता हैं, वो भी जिसके आप मात्र दृष्टा हैं कल नहीं रहेगा।
चांद और सूरज आपने तो नहीं बनाए न, कि बनाए हैं? अरे, वो भी कल नहीं रहने वाले, तो गड़बड़ हो गई।