मौत के बाद कौन सी मुक्ति मिलनी है!

प्रश्नकर्ता: एक सामान्य व्यक्ति की इच्छा होती है कि जीवन में शांति मिले और जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाए। जो मान्यता हम मुक्ति की समझते हैं वो ये है कि जीवन-मरण से मुक्ति मिल जाए।

प्रश्न मेरा ये है कि द्वैतवाद और अद्वैतवाद में कौनसा मार्ग ऐसा है जिसको एक साधारण व्यक्ति फॉलो कर सकता है। हालाँकि ये भी कहा जाता है और समझते हैं कि द्वैत भी अंततः अद्वैत है, लेकिन अगर एक सामान्य व्यक्ति द्वैत के माध्यम से अद्वैत तक पहुँचेगा तो सारा समय निकल जाता है। अद्वैत को फॉलो करें या द्वैत को?

आचार्य प्रशांत: देखिए, भारत ने एक बड़ी अमूल्य बात कही — जीवन-मुक्त। और जीवन-मुक्त को ये नहीं कहा कि आदर्श मात्र है। जीवन-मुक्त को कहा कि ये तुम्हारी संभावना है, ये तुम्हें प्राप्त हो सकती है, तुम ऐसे हो सकते हो। जीवन-मुक्त से ही मिलती-जुलती बात है विदेह-मुक्त की।

जीवन-मुक्त कौन? जिसको अब जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होने की भी फ़िक्र नहीं रह गई। जो जीते-जी तर गया। आपने कहा न कि, “मैं एक साधारण प्रश्नकर्ता हूँ”। जो अति साधारण हो गया सो जीवनमुक्त। जिसको अब किसी भी विशिष्ट व्यक्ति की, पद की या स्थिति की तलाश ही नहीं रही वो जीवनमुक्त।

जीवन माने क्या? जीवन माने कामनाओं का प्रसार, और कामनाओं में कोई बुराई नहीं अगर जिसकी आपको कामना है वो मिल ही जाए। कामनाओं में कोई बुराई नहीं अगर जो आप चाहते हो वो हो ही जाए। तो सिर्फ इतना कहना काफ़ी नहीं है कि जीवन कामनाओं का प्रसार है। जीवन असफल कामनाओं का प्रसार है। जीवन हमारी हारों की कहानी है।

जीवन-मुक्त वो जिसने ऐसी लड़ाईयाँ लड़ना बंद कर दिया जिनमें हार तो हार है ही, जीत भी हार है। वो जीवन-मुक्त हो गया। उसको अब इस बात से भी प्रयोजन नहीं होता कि — मृत्यु के उपरांत क्या?

अभी वाराणसी से होकर आ रहा हूँ। कबीर साहब को जब मृत्यु आई तो वो बनारस से दो सौ किलोमीटर और दूर चले गए। आम आदमी कहता है कि ऐसे मरें कि मुक्ति मिल जाए। और संतों के ठाठ देखिए, वो बनारस में मौजूद हैं लेकिन मगहर चले गए और मगहर कोई मरना नहीं चाहता। ये जीवन-मुक्त हैं। ये कह रहे हैं कि, “अब कौन परवाह करे कि आगे क्या और पीछे क्या। हम आत्मस्थ हो गए।”

उनके पास जाकर के किसी ने ऐसा ही प्रश्न करा था कि मृत्यु के बाद कोई मुक्त हो जाए कोई तरीका बताइए। तो उसको देखते हैं ऊपर से नीचे तक, उसकी हालत, उसका चेहरा, उसके माथे पर चढ़ी त्योरियाँ, फिर कहते हैं, “जियत न तरे, मरै का तरिहौ”।

जीते-जी तो अपनी हालत देखो, और बात कर रहे हो कि मौत के बाद तरोगे। जो है सो अभी है। अपनी वर्तमान हालत देखो। देखो की कैसे सोते हो, कैसे उठते हो, क्या खाते हो, क्या पीते…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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