मौत के डर को कैसे खत्म करूँ?

यह सारे डर ‘मौत’ के हैं यह बाद में समझना, पहले यह समझो कि मृत्यु क्या है? तुम क्या समझते हो मृत्य क्या है? शरीर की मृत्यु तुमने देखी नहीं है। कोई ऐसा नहीं है जिसने अपनी मृत्यु देखी हो और यह मूलभूत नियम जान लो कि जो तुम बिलकुल जानते नहीं तुम्हें उसका खौफ़ नहीं हो सकता। यह डर का नियम जान लो। डर हमेशा होता है उसका जो तुम्हारे पास है परन्तु जिसके छिन जाने की आशंका है। जो तुमने जाना नहीं, देखा नहीं, जिसका तुम्हारा कोई अनुभव नहीं; तुम्हें उसका डर हो नहीं सकता।

इस बात को फिर से समझो!

जब तुम कहते हो कि तुम्हें मौत का खौफ़ है तो तुम्हें वास्तव में मौत का खौफ़ नहीं है तुम्हें जीवन के छिन जाने का खौफ़ है। मृत्यु तुम जानते नहीं। हाँ, तुम ऐसा जीवन ज़रूर जानते हो जिसमें बहुत कुछ ऐसा है, जो लगातार छिनता रहता है। तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हारे पास जो कुछ है वो कभी पूरा नहीं रहा और कभी पक्का नहीं रहा। जो मिला वो आधा-अधूरा मिला और जो मिला वो समय की दया से मिला। समय ने दिया और समय ही उसे छीन कर वापस भी ले गया। इस डर का नाम तुमने मृत्यु दिया है।

कृपा करके अपने मन से यह बात निकाल दो कि तुम्हें शरीर के नष्ट हो जाने का डर है। तुम्हें शरीर के नष्ट हो जाने का डर नहीं है। मृत्यु के डर के केंद्र में अहम् भाव बैठा होता है - कि ‘मैं कौन हूँ।’ तुमने अपने-आपको जिस रूप में परिभाषित किया है तुम्हें अपना वो रूप नष्ट हो जाने का डर है। तुमने अपने-आपको जिस रूप में देखा है, तुम्हें अपने उस रूप के नष्ट हो जाने का डर है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org