‘मोटिवेशन’ और ‘पॉज़िटिव थिंकिंग’ — पूरी बात
--
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने आपके पॉज़िटिव थिंकिंग को लेकर काफी वीडिओज़ देखे हैं और हमेशा आप पॉज़िटिव थिंकिंग को लेकर आलोचनात्मक ही रहे हैं। ये बात मुझे समझ में भी आती है कि पॉज़िटिव थिंकिंग की जगह समझ ज़्यादा ज़रूरी है लेकिन मैंने अपने स्वयं के जीवन में देखा है कि मुझे पॉजिटिव थिंकिंग की ज़रूरत पड़ती है। कई बार निराश हो जाता हूँ तो उस समय ये ज्ञान काम नहीं आता। उस समय यही काम आता है कि पॉज़िटिव रहो, आशा रखो। तो मैं दोनों चीज़ों में फँसा हुआ हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा कि किस तरफ जाऊँ। कृपया इसे समझाइए।
आचार्य प्रशांत: देखो, पॉज़िटिव थिंकिंग का संबंध इच्छा से है न? जब आपको किसी चीज़ की इच्छा उठती है और वो चीज़ आपको मिल नहीं रही होती है, तकलीफ़ होती है, निराशा होती है कि कुछ चाहिए वो मिल नहीं रहा है। तो आगे के लिए हौसला बनाए रखने को फिर इंसान पॉज़िटिव थिंकिंग का सहारा लेता है, आशावादी दृष्टिकोण या आशावादी चित्त, सोच।
लेकिन जब आप आशा रखना चाहते हो कि भविष्य में आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी तो उस वक़्त क्या ये ज़रूरी नहीं है पूछना कि आप जिस इच्छा को पूरा करना चाहते हो वो आपमें कहाँ से आ गई? वो इच्छा आपके भीतर आ ही कहाँ से गई? क्योंकि आप उस इच्छा के साथ पैदा तो नहीं हुए थे। आज हो सकता है आपको वो इच्छा हो, छह महीने पहले तो नहीं थी या दो साल पहले या पाँच साल पहले तो नहीं थी। तो इच्छा आप में कहाँ से आ गई?
तो पॉज़िटिव थिंकिंग की बात बाद में आती है, पहले सवाल ये आता है कि हममें इच्छा कहाँ से आ जाती है। क्योंकि हमारी जब इच्छाएँ आती हैं और वो इच्छाएँ जब पूरी नहीं होती हैं तभी हम पॉज़िटिव थिंकिंग वगैरह की बात करते हैं। तो इच्छा ही कहाँ से आती हैं?
अगर आप थोड़े भी सजग हैं तो आपको दिखाई देगा कि, किसी भी इंसान में इच्छा जागृत कर देना कोई मुश्किल काम नहीं है। एक बार किसी इंसान में आप किसी चीज़ की इच्छा जागृत कर दें तो उसको यही लगने लगता है कि उसमें जो इच्छा उठी है वो उसकी अपनी व्यक्तिगत या मौलिक इच्छा है। उसको ये बिलकुल ध्यान नहीं रहता, वो बिलकुल भूल जाता है कि उसकी इच्छा उसकी अपनी है ही नहीं।
ये कहना भी ठीक नहीं है कि उसमें इच्छा किसी और ने जागृत कराई थी। ऐसे कह लीजिए कि उसमें इच्छा किसी और ने प्रविष्ट करा दी है। उसके मन में घुसेड़ दी है, खामखा ठूस दी है। तो मैं यही बार-बार समझाने की कोशिश करता हूँ कि हमारी ज़्यादातर इच्छाएँ, शायद हमारी सभी इच्छाएँ, हमारी हैं ही नहीं। कोई दूसरा है जो हमारे मन में इच्छाएँ लेकर आ रहा है, घुसेड़ रहा है, प्रविष्ट करा रहा है, ज़बरदस्ती। जैसे कोई वायरस आपके भीतर घुस जाता है बिना आपकी अनुमति के। वायरस आपसे पूछता तो नहीं है न कि, “तुम्हारे भीतर आ जाऊँ क्या?” पर वो आ…