मैडिटेशन कब और किसके लिए ज़रूरी है?
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।
शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कृशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके
उस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।
काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भली-भाँति शांत अंतःकरण वाला, सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ११-१४
प्रश्नकर्ता: यहॉं श्रीकृष्ण ने ध्यान-योग के बारे में बताया है लेकिन ये भी मुझे मेडिटेशन प्रैक्टिस (ध्यान का अभ्यास) जैसा दिख रहा है, जिसके विरुद्ध कई बार आपने बोला है। आचार्य जी, कृपया इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: अधिकाँश लोगों के लिए बहुत मुश्किल है वह करना जो सरल सामान्य-सी दिखने वाली बातें यहॉं श्रीकृष्ण उपदेशित कर रहे हैं। हमें यूँ लगेगा कि यह तो आसान-सी बात है — एक जगह पर बैठ जाना है, हिलना-डुलना नहीं है, इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करना है। काया, सिर और गले को समान और अचल धारण करना है। स्थिर होकर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमानी है, और कहीं भी देखना ही नहीं है नासिका के अग्रभाग के अलावा। भयरहित रहना है, शांत रहना है, सावधान रहना है और मात्र कृष्ण परायण होकर स्थित हो जाना है। कितना आसान है यह!
आप कह रहे हैं कि यह आपको मेडिटेशन प्रैक्टिस जैसा ही दिख रहा है। बिल्कुल यह एक अभ्यास ही है, निश्चितरूप से अभ्यास है, पर यह अभ्यास उनके लिए अतिआवश्यक है जो इतना भी नहीं कर सकते। जो इतना सरलतापूर्वक करने लग गए हों, वे यह सब अभ्यास आदि ज़रूर त्याग दें, नि:संदेह।
पर ईमानदारी से अपने-आपसे यह पूछना ज़रूरी है कि क्या मेरे लिए यह सब करना सुगम हो गया है। बहुत मुश्किल होता है ज़्यादातर लोगों के लिए कहीं पर शांत और स्थिर बैठ पाना भी; बहुत मुश्किल होता है मात्र एक जगह देख पाना, न इधर देखना, न उधर देखना; बहुत मुश्किल होता है इंद्रियों को अचल कर पाना, रीढ़ को सीधा रखकर बैठ पाना। आप प्रयास करके देख लीजिए, शरीर विद्रोह कर देगा।
हठयोग की सारी क्रियाओं का उद्देश्य बस यही है कि एक ज़मीन तैयार हो सके ताकि फिर आप योग के उच्चतर आयामों में प्रवेश कर पाएँ। और बिल्कुल खुलकर बेबाकी के साथ हठयोग के ग्रंथ इस बात को स्वयं ही कहते हैं कि राजयोग इत्यादि तो आपके लिए बाद में आएँगे, पहले आप स्थिर बैठना तो सीख लें।
मैं बहुत साल पहले जब कॉलेजों, यूनिवर्सिटीज़ (विश्वविद्यालयों) में छात्रों से बात करता था तो सत्र तो मेरे लंबे चलें, दो घंटे-चार घंटे चलें, और मैं देखूँ कि वहॉं पर बहुत मुश्किल है छात्रों के लिए घंटे भर भी कहीं पर स्थिर और संतुलित होकर बैठ पाना। ज़्यादा समय नहीं लगा मुझे यह देख पाने में कि सबसे पहले तो इन्हें प्रशिक्षण चाहिए स्थिर और चुपचाप बैठ पाने का। ये ज़िंदगी में कभी दो घंटे स्थिर बैठे ही नहीं हैं, इन्होंने जीवन में कभी घंटे भर भी किसी की बात लगातार ध्यान से सुनी ही नहीं है।
वो वहॉं सामने बैठे हैं, मैं यहॉं मंच पर ऊपर बैठा हुआ हूँ और हॉल में दो सौ-चार सौ छात्र हैं। उन्हें अभ्यास ही नहीं है कि बाकी जितने छात्र हैं, उनकी उपेक्षा और अवहेलना करनी है और सिर्फ़ वक्ता की ओर दृष्टि को सीधा केंद्रित करना है। श्रीकृष्ण यहॉं कह रहे हैं न — बस नाक पर नजर जमाओ, न दाएँ देखो, न बाएँ देखो। जब मैं मंच पर हुआ करता था, तब यही सबको सलाह होती थी कि भाई, बस सीधे देखो, न दाएँ देखो, न बाएँ देखो। बड़ा मुश्किल होता था, ‘न बाएँ देखो, न दाएँ देखो’।
तो यहॉं पर श्रीकृष्ण जिन क्रियाओं का अभ्यास करने को कह रहे हैं, वो मामूली नहीं हैं। मामूली इसलिए नहीं हैं क्योंकि ज़्यादातर लोगों के लिए यही कर पाना टेढ़ी खीर है। आगे की बातें तो छोड़िए कि मनोनिग्रह और आत्मावलोकन और साक्षीत्व, ये सब तो बहुत दूर की कौड़ी है। बेटा, साक्षी तुम बाद में बनना, पहले घंटे भर शांत बैठकर दिखा दो। तो देखने में ये सब बातें साधारण लग रही हैं, पर करने चलिए तो पता चलेगा कि ये भी कितनी दुष्कर हैं। तो इनका अभ्यास आवश्यक है।
आप कह रहे हैं कि मैंने इनके विरुद्ध बोला है। मैंने इनके विरुद्ध नहीं बोला है, मैंने बेईमानीपूर्वक इन क्रियाओं के अभ्यास को अहंकार की चाल बनाने के विरुद्ध बोला है। मैंने उनके विरुद्ध बोला है जो बीस साल-चालीस साल से यही करते जा रहे हैं और इसके आगे जाने का उनका कोई इरादा ही नहीं है। जिनके लिए कृष्ण परायणता का अर्थ बस इतना ही होता है कि सुबह एक घंटे मृग छाल पर बैठ करके, आंख बंद करके ध्यान लगा लिया और बाकी तेईस घंटे दिन के जिनके कृष्ण से दूरी में ही बीतते हैं, मैंने उनके विरुद्ध बोला है।
जिसकी टांगे कमजोर हो, उसको चलने के लिए अगर लाठी थमा दी जाए तो मुझे लाठी से क्या आपत्ति हो सकती है? पर जाना दूर है और कोई उस लाठी को अपनी आदत का हिस्सा बना ले और उसे टेकता जीवन भर धीरे-धीरे लंगड़ाकर ही चलता रहे तो मुझे बहुत आपत्ति है।
हठयोग की तमाम क्रियाओं और अभ्यासों को पुल बनाने की जगह लोग जीवनभर की अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लेते हैं। ऐसे लोगों से मैंने साफ़ कहा है कि आप जीवनभर करते रहिए, आप जो ये करते हैं सुबह-शाम, इससे आपको कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होने वाला। हॉं, हो सकता है कि कोई शारीरिक लाभ हो जाए लेकिन आध्यात्मिक लाभ बिल्कुल भी नहीं होगा।
साँस अंदर-बाहर करते रहिए, टाँग ऊपर-नीचे करते रहिए, इससे ये बिल्कुल हो सकता है कि आपका शरीर स्वस्थ रहे, इससे ये भी हो सकता है कि आप दिनभर थोड़ा ज़्यादा ऊर्जावान महसूस करें। भाई, शरीर अगर बेहतर है तो ऊर्जावान भी आप महसूस करेंगे ही। लेकिन इससे ये नहीं होने वाला कि आपके मन में सत्य उतर आएगा, आप अनासक्त हो जाएँगे, आप अहिंसक हो जाएँगे और आपका अहंकार गल जाएगा, ऐसा नहीं होने वाला। आप जीवनभर अभ्यास और क्रियाएँ करते रहें तो भी नहीं होने वाला। अहंकार पर उसका कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। शरीर पर पड़ जाएगा, अहंकार पर नहीं पड़ेगा।
तो बात सूक्ष्म है, समझिएगा। ध्यान की, मेडिटेशन की जितनी भी विधियाँ होती हैं, वो सब आरंभिक तौर पर निश्चितरूप से उपयोगी हैं, फ़ायदेमंद हैं। ये तो छोड़िए कि मैं उनके विरोध में हूँ, मैं तो खुद कई बार उनकी अनुशंसा करता हूँ, लोगों को सुझाव देता हूँ कि तुम भी करो। मैं विरोध में उनके हूँ जो जीवनभर विधियों से ही चिपके रह जाते हैं, जिनका विधियों से आगे जाकर जीवन को सतत ध्यान में बिताने की नीयत ही नहीं होती है, इरादा ही नहीं होता है।