‘मैं’ भाव क्या है? मैं को कैसे देखें?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ‘मैं’ भाव क्या है? मैं ऐसा महसूस करती हूँ कि शरीर में ‘मैं’ हूँ। ‘मैं’ क्या चीज़ है? जब तक मेरा अस्तित्व है, तब तक मैं ‘मैं’ को महसूस कर रही हूँ। बाद में ये ‘मैं’ कहाँ चला जाता है? क्या होगा इसका?
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं होगा। राख हो जाएगा।
प्र: लेकिन यह जो भाव है ‘मैं’ का, यह शरीर है, यह तो पता है। लेकिन कई बार यह भाव आता है कि कुछ तो है, जो इस शरीर से अलग है।
आचार्य: भाव और तथ्य को अलग-अलग करके देखिए। भाव प्रमाण नहीं होता सत्यता का। भावना हमारी कुछ भी होती रहे, क्या आवश्यकता है कि उसका सच से कोई भी सम्बन्ध है? ‘मैं’ क्या है, इसमें कोई बड़ी गुत्थी नहीं है। कोई आपकी कोहनी पर ऊँगली रख देता है, आप तुरंत कह देती हैं न, “मैं”। तो ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ माने — कोहनी।
अब ये बात अच्छी ही नहीं लगती, क्योंकि हम किसी विराट, विस्मयी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भई ‘मैं’ से तो अस्मिता जुड़ी हुई है, ‘मैं’ से तो पहचान जुड़ी हुई है। और कोई कह दे, “‘मैं’ माने तुम्हारा बाल, तुम्हारी कोहनी”, तो बड़ी निराशा और बड़ी बेइज़्ज़ती लगती है। कोई बड़ी बात तो होनी चाहिए थी न।
भई, अगर ‘मैं’ मुझसे ही सम्बंधित कोई चीज़ है, तो यह बोलते, “‘मैं’ — माने तुम्हारा ज्ञान, ‘मैं’ माने तुम्हारी खूबसूरत आँखें।” ना, ‘मैं’ माने वो जिसके साथ मैं जुड़ गया। कोहनी से जुड़ा बैठा है, तो ‘मैं’ माने कोहनी।