‘मैं’ भाव क्या है? मैं को कैसे देखें?

भाव और तथ्य को अलग-अलग करके देखिए। भाव प्रमाण नहीं होता सत्यता का। भावना हमारी कुछ भी होती रहे, क्या आवश्यकता है कि उसका सच से कोई भी सम्बन्ध है? ‘मैं’ क्या है, इसमें कोई बड़ी गुत्थी नहीं है। कोई आपकी कोहनी पर ऊँगली रख देता है, आप तुरंत कह देती हैं न, “मैं”। तो ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ माने -कोहनी।

अब ये बात अच्छी ही नहीं लगती क्योंकि हम किसी विराट, विस्मयी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भई ‘मैं’ से तो अस्मिता जुड़ी हुई है, ‘मैं’ से तो पहचान जुड़ी हुई है। और कोई कह दे, ‘मैं’ माने तुम्हारा बाल, तुम्हारी कोहनी, तो बड़ी निराशा और बड़ी बेइज़्ज़ती लगती है। कोई बड़ी बात तो होनी चाहिए थी न।

भई, अगर ‘मैं’ मुझसे ही सम्बंधित कोई चीज़ है, तो यह बोलते, मैं — माने तुम्हारा ज्ञान, ‘मैं’ माने तुम्हारी खूबसूरत आँखें।” न, ‘मैं’ माने वो जिसके साथ मैं जुड़ गया। कोहनी से जुड़ा बैठा है, तो ‘मैं’ माने कोहनी।

अब प्रश्न यह है कि — क्या ये ‘मैं’ बिना जुड़े भी कभी पाया गया? जब बिना जुड़े कभी पाया ही नहीं गया, तो शरीर, या जुड़ने के विषय से पृथक फिर इस ‘मैं’ का कोई अस्तित्व ही नहीं है।

जब जुड़ने के लिए कुछ नहीं, तो ‘मैं’ भी फिर कहीं नहीं। और ‘मैं’ किसी से जुड़ा हुआ है, तब ‘मैं’ वही है, जिससे जुड़ा हुआ है।

‘मैं’ कोहनी से जुड़ा हुआ है, तो मैं कौन? कोहनी। “कम-से-कम ये तो बोलते कि ‘मैं’ माने हाथी का अंडा। कुछ तो विराटता आती उसमें। हमने तो सुना है कि ‘मैं’ अनंत होता है। अनंत नहीं, तो कम-से-कम हाथी के अंडे जितना बड़ा हो। वो भी नहीं, कोहनी।”

हाँ, कोहनी।

तुम जिससे जुड़ जाओ, वही ‘मैं’।

और अगर आप कहना चाहती हैं कि ‘मैं’ आप से पृथक कुछ है, तो जो-जो आप में ‘मैं’ नहीं है, वो बता दीजिए, उसको कोई और ले जाए। फिर आपके पास जो कुछ ऐसा है जिससे ‘मैं’ सम्बन्धित नहीं है, उसको बता दीजिए। तो उसको त्याग करके चले जाएँगे, या उसको दे देंगे जिसको ज़रुरत हो। बहुत घूम रहे हैं ‘मैं’ की अपूर्णता लिए। तो उनको कुछ दे देंगे कि थोड़ा ये भी रख लो।

खां-म-खां सवाल को उलझाया गया है — “‘मैं’ माने क्या? ‘मैं’ माने क्या?”

अरे जो आत्मस्थ होकर जीये होंगे, उनके लिये ‘मैं’ माने — आत्मा, रहा होगा। हम कहाँ स्थित होकर जीते हैं? हम तो शरीर और कपड़ों में स्थित होकर जीते हैं। हम तो प्रभावों और भावनाओं में स्थित होकर जीते हैं। तो ‘मैं’ माने क्या? भावना। ‘मैं’ माने क्या? कपड़ा। देखा है न कपड़ा बदलने के साथ तुम्हारी ‘मैं’ भावना कैसे बदल जाती है? तो ‘मैं’ माने क्या फिर? कपड़ा।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org