मैं दुविधा में क्यों रहती हूँ?
कैसे पता चले कि बाहरी आवाजें आ कर बैठ गई हैं? बहुत सरल है। देखो कि मन में दिन रात विचार किसका चल रहा है। तुम्हारा मन ही तुम्हारी प्रयोगशाला है। देख लो कि किसका विचार चल रहा है लगातार? जिसका विचार तुम्हारे मन में घूम रहा है, उसी ने तुम पर कब्ज़ा कर रखा है। अब वो विचार ध्यान रखना, ये भी हो सकता है कि तुम्हें किसी की मदद करनी है। तुम कहोगे “अरे! मैं उसकी मदद करने जा रहा हूँ। वो मुझ पे हावी कैसे हो सकता है, वो तो बेचारा है?” हो गई न चूक, तुम माया के पैन्थरों को समझते नहीं हो। माया कोई ताकतवर हाथी ही बन के नहीं आती कि तुम्हें कुचल देगी। कोई ताकतवर हाथी हो, तो तुम उससे डरोगे और डर तुम्हारे मन पे हावी हो जाएगा। हम सोचते हैं माया कोई ऐसी चीज़ है, जो हमसे लड़ने आ रही है, हमारी दुश्मन है तो शेर जैसी होनी चाहिए, हाथी जैसी होनी चाहिए। माया एक बेचारा कबूतर भी हो सकती है, एक नन्हा खरगोश भी हो सकती है।
हाथी से तुम बचना चाहते थे और खरगोश को तुम बचाना चाहते थे, लेकिन दोनों ही स्थितियों में हाथी हो चाहें कबूतर ख्याल तो तुम्हारे मन में घूमने लग गया न? बस हो गया काम तुम्हारा। इसी को तो कहते हैं, हावी होना। तुम सोच रहे हो तुम मदद कर रहे हो; तुम मदद नहीं कर रहे हो तुम शिकार हो रहे हो। कोई आकर के ज़बरदस्ती तुम्हारे चित्त पे कब्जा करे तो तुम प्रतिरोध करोगे, पर कोई किसी असहाय बच्चे की शक्ल ले के आए तो तुम कैसे प्रतिरोध करोगे? तुम कहोगे “अरे! ये तो असहाय है, अबला है। मुझे तो इसकी मदद करनी है, मुझे इससे बचना थोड़ी है, ये मुझ पर आक्रमण थोड़ी कर रहा है।”