मैं दुखी क्यों हूँ
आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ आदमी है जो दुःख में जिये जा रहा है वरना अस्तित्व में दुःख कहीं भी नहीं है। ये सब कुछ तुमको अपने चारों ओर दिखाई देता है, ये कहाँ से आ रहा है? ये आ कहाँ से रहा है, इसको समझो, ध्यान से देखो।
तुम सब सुख चाहते हो ना इसीलिए शिकायत कर रहे हो कि दुःख क्यों है। सुख सब चाहते हो, शिकायत यही है कि दुःख क्यों है। तुम्हारी सुख की अपनी-अपनी परिभाषा हो सकती है, पर एक बात पक्की है कि सुख सबको चाहिए इसलिए तकलीफ़ ये है कि दुःख क्यों है। और अब मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि क्या बिना दुःख के सुख हो सकता है? जब तक तुम गहराई से दुखी नहीं हो, क्या ये संभव है कि तुम सुखी हो जाओ?
परीक्षा का परिणाम आने वाला है, तुम्हें तनाव है गहरा। परिणाम आता है और तुम पास हो जाते हो, बड़ा सुख होता है। क्या वो सुख हो सकता था बिना तनाव के? क्या तुम्हें सुख का जऱा भी अनुभव होता अगर तुम्हें पहले तनाव होता ही नहीं? अगर तुम पहले भी प्रसन्न होते, मुक्त होते तो क्या सुख चाहते? तो फ़िर दुःख इसलिए है क्योंकि तुम्हें सुख चाहिए बहुत सारा। बिना दुःख के सुख हो नहीं सकता।
जीवन का एक नियम है, उसको ध्यान से समझना। तुम जो कुछ भी चाहते हो, तुम्हें उसके विपरीत का भी निर्माण करना ही पड़ेगा वरना जो तुम चाहते हो वो तुम्हें मिल नहीं पायेगा। ये जो तुम्हारे सामने हैं, क्या अक्षर दिखाई दे रहें हैं तुमको? गहरे रंग में दिखेगा, ये काला है, बैंगनी है, गहरा रंग है। क्या तुम कुछ भी पढ़ सकते थे अगर इनके पीछे सफ़ेद पृष्ठभूमि ना होती? क्या तुम कुछ भी पढ़ पाते? तो तुम्हें अगर काले को पढ़ना है तो तुम्हें सफ़ेद का निर्माण करना ही…