मैं तड़पा हूँ, इसलिए तेरी भी तड़प समझता हूँ
प्रेम का अर्थ ये नहीं होता कि मेरे तुम्हारे विचार मिलते हैं, प्रेम का अर्थ है- मैं तुम्हारे हित के लिए उत्सुक हूँ, आतुर हूँ।
विचारों के आधार पर रिश्ता बहुत दूर तक नहीं ले जा पायेंगे, प्रेम बिल्कुल दूसरी चीज़ होती हैं, पर दूसरे का हित आपको पता हो, इसके लिए पहले आपको हित चीज़ क्या है, ये तो पता हो! हित चीज़ क्या है? ये पता हो तो सबसे पहले आप अपना हित नहीं करेंगे?
प्रेम कुछ और होता है, खुद को जानता हूँ, इसलिए तुझे भी जानता हूँ।
अपने दुःख, अपनी तड़प, अपनी बैचेनी को जानता हूँ , इसलिए मुझे तेरे दंश ओर तेरे शूल का भी पता है, मैं भटका हूँ, मैं तड़पा हूँ, मैं रोया हूँ, इसीलिए तेरी भी तड़प समझता हूँ, चूँकि बहुत दुःख झेला है मैंने, इसलिए हर दुखी का दुःख जानता हूँ। सब दुःख मूल में एक है, तू मुझसे पराया कैसे हो गया भाई! जब तू मुझसे पराया नहीं, तो जैसे मैं अपना दुःख दूर कर रहा हूँ, वैसे ही तेरा भी करूँगा।
इस पूरे वक्तव्य में ‘विचार’ नाम का शब्द आया कहीं?
प्रेम गहरी ओर आध्यात्मिक बात है, कोई राज़ या कोई रहस्य नहीं है प्रेम में।
संतो को पता है प्रेम क्या है। जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।
खुद मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना है और जानना कि दूसरा भी मेरे ही जैसा है।
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