मैं जानता हूँ’-सबसे अधार्मिक वचन

बहुता कहीऐ बहुता होइ। असंख कहहि सिरि भारु होइ॥

~गुरु नानक

आचार्य प्रशांत: जितना कहोगे उतना कम पड़ेगा। सत्य के विषय में कहने की तो इच्छा खूब होगी तुम्हारी पर जितना कहोगे उतना कम पड़ेगा। ये भी कहोगे कि वो अनंत है, असंख्य है, असंख्यातीत है, ये कहना भी कम पड़ेगा। मन तुम्हारा खूब करेगा कि किसी तरह कहें, कहें, कहें और कहने का अर्थ होता है उसे शब्दों में किसी तरह कैद कर ले। मन तुम्हारा खूब करेगा कि कहें, कहें, कहें, कहें पर जितना तुम मन की बात सुन करके ये कोशिश करते जाओगे कि शब्दों में लाते जाए उसको उतना ज़्यादा यही पाओगे कि मन का भार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है।

मन की इससे बड़ी कोई आकांक्षा नहीं, अहंकार इससे ज़्यादा कहीं तृप्त नहीं होता कि वो जो उससे अनंत गुना बड़ा है, वो उसके बारे में कहीं से जान ले और हो सके तो उसे अपने में समा ही ले। अहंकार तो है ही एक गहरी अपूर्णता का नाम। वो अपूर्णता ऐसी है, जो बिना मिटे पूर्ण हो जाना चाहती है। अपूर्णता कहती है, “मैं अपूर्ण बनी रहू पर अपूर्णता खत्म हो जाए।” अपूर्णता कहती है, “मैं तो बनी रहू पर अपूर्णता ख़त्म हो जाए।” और उसका तरीका उसने क्या निकाला है? उसका तरीका ये है कि पूर्ण को मेरे भीतर डाल दो तो मेरी अपूर्णता ख़त्म हो जाएगी। उससे मैं बची रहूँगी।

मैं कौन?

सभी श्रोता एक स्वर में: अपूर्णता।

आचार्य जी: तो मन का ये सबसे बड़ा दुस्साहस, दुष्प्रयत्न, और मन की सबसे बड़ी बेवकूफी भी यही रहती है, बहुता कहिये; कहो-कहो-कहो खूब कहो।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org