मैं अपना दुख स्वयं हूँ!

मैं अपना दुख स्वयं हूँ!

‘स्वरूप निर्वाणं,’ ऋषि मंत्र दे रहे हैं —

स्वरुप निर्वाणं

निर्वापित होने का अर्थ होता है जो जल रहा है उसका शमित हो जाना | जहाँ आग लगी हुई है उसका बुझ जाना, बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है जो ऋषि नें हमें दे दिया है दो ही शब्दों में, स्वरुप निर्वाणं | जो कुछ भी तुम्हारे जीवन में जलता हुआ प्रतीत होता है वो तुम्हारा स्वरुप है | तुम ही हो जो जल रहे हो | वो सबकुछ जो तुम अपनें आप को समझते हो वही वो आग है जो तुम्हें जलाय दे रही है | वही वो पीड़ा है जो दिन रात तुम्हारे कलेजे में चुभ रही है | तुम्हारी आग परिस्थिति जन्य नहीं है |

तुम्हारे दुःख तुम्हें संसार नें नहीं दिए | आकस्मिक संयोग नहीं थे तुम्हारे जीवन में जितने भी कष्टप्रद मौके आये | वो सबकुछ तुम्हारे तुम होनें का अंजाम थे |

आप लोगों से बात करता हूँ, अब सैकड़ों नहीं तो हजारों लोगों से मिल चुका हूँ, पर अभी तक किसी एक भी ऐसे से मिलना बाकी है, जो अपनें दुःख कारण स्वयं न हो | मैंने कोशिश भी करी है किसी तरह से ये बात बैठानें की, कि व्यक्ति ‘शांत’ था, मन केन्द्रित था, परन्तु दुःख फिर भी आया, लेकिन ये असम्भवता है | ऐसा हो नहीं सकता |

शास्त्र भी जिन तीन प्रकार के तापों को उल्लेख करते हैं, वो तीनों दिखते भले बाहरी हों पर तीनो में ही तपनें वाला कोई मौजूद होना चाहिये | वो तपने वाला तुम्हारा स्वरुप है | ताप्त्र जब आप पढ़ते हो तो ये सवाल अक्सर पूँछना भूल जाते हो कि ताप किसको है ? दुःख किसको है ? जिसनें ये सूत्र समझ लिया, जिसना इस सूत्र को अपनें भीतर गहराई से बैठ जानें दिया…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org