मैंने बहुत घिनौने काम किए हैं, मेरा कुछ हो सकता है?

प्रश्नकर्ता: मैंने बहुत घिनौने पाप किए हैं, क्या मेरा कुछ हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारा ही कुछ हो सकता है। उनका नहीं हो सकता जो अपने आप को बड़ा पुण्यात्मा या धर्मी समझते हैं। देखो, पापी तो हम सारे ही हैं। जीसस कह गए हैं कि "सफरिंग इज़ सिन (दुःख पाप है)।" जो भी कोई पीड़ा में है, दर्द में है, दुःख में कराह रहा है, उसने कहीं-ना-कहीं तो पाप कर ही रखा है।

सनातन परंपरा के ग्रंथ जगह-जगह पर कहते हैं कि —"जो मुक्त होते हैं वो दोबारा जन्म नहीं लेते। जिनकी ज़िंदगी में कोई कमी रह गई होती है, जो कामनाओं के जाल में रह गए होते हैं, उन्हीं को मनुष्य की देह धारण करनी पड़ती है।" तो पापी तो हम हैं ही। बस अंतर ये है कि कुछ ईमानदारी से इस बात को स्वीकार करते हैं कि वो पापी हैं, और बाकियों को बड़ा नाज़ है, गौरव है, फ़क्र है, कि —"हम तो दूध के धुले हैं, हंस के पंख हैं हम।" उनकी वो जाने।

परिवर्तन वास्तविक शुरू ही तब होता है जब तुमको दिखाई दे जाता है कि तुम पापी भर नहीं हो, जैसे तुम बने बैठे हो, तुम पाप मात्र हो। और चमत्कार की बात ये है कि जब तुम स्वीकार कर लेते हो कि तुम पाप मात्र हो, उस क्षण तुम्हारा पुण्य शुरू हो जाता है।

'पुण्य' और 'पाप' से मेरा आशय क्या है? कोई नैतिक आशय नहीं है कि फ़लाना चीज़ करो तो पाप, और फ़लाना काम करो तो पुण्य। 'पाप' और 'पुण्य' से मेरा आशय है कि जो कुछ भी तुम्हें तुम्हारे दुःख से और तुम्हारी तड़प से मुक्ति दिला दे, वो पुण्य है, और जो कुछ भी तुम्हारी बेहोशी, अंधेरे, और…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org