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मेरा मन और युवाओं का मन, आपका बहुत विरोध करता है

मेरा कोई ऐसा इरादा नहीं है कि अगर कोई चीज़ तुम्हें सुख दे रही हो तो वो मैं तुमसे छीन लूँ और तुम्हारे हाथ में काँटे थमा दूँ, दुख थमा दूँ। तुम मुझे आश्वस्त कर दो कि तुम्हारे हाथ में ये जो अश्लील साहित्य होता है इससे तुम्हें वाकई सुख, मौज-मस्ती मिलती है, तो मैं कहूँगा इसी को पकड़ो, इसी को भजो, इसी के साथ जिओ, खाओ, छोड़ दो गीता को, किसी आध्यात्मिक ग्रंथ की कोई ज़रूरत नहीं है, न बोध की ज़रूरत है, न बुद्धि की।

अध्यात्म कोई परंपरा थोड़ी न है, कोई प्रथा की बात थोड़ी न है, कोई नैतिकता की बात थोड़ी न है। हमारी हस्ती का ये बड़ा अनिवार्य नियम है कि हमें दुख से दूर जाना ही जाना है, अध्यात्म दुख से दूर जाने का विज्ञान है।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप श्रीमद्भगवद्गीता इसलिए पढ़िए क्योंकि वो आपकी संस्कृति में बड़ा महत्व रखती है, संस्कृति महत्वपूर्ण होकर भी कुल ज़िंदगी के परिपेक्ष में बहुत छोटी चीज़ें हैं। संस्कृति आदमी के लिए होती है, आदमी संस्कृति के लिए नहीं होता, आदमी ने जो कुछ रचा है अपने लिए रचा है, संस्कृति भी आदमी ने रची है। श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व इसमें नहीं है कि वो हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, भगवतगीता का महत्व इसमें भी नहीं है कि आप जिस धर्म के अनुयायी है उस धर्म की वो एक केंद्रीय पुस्तक है, उसका महत्व है कि वो आपके दुख को, झंझट को, काटती है।

पंद्रह साल या बीस-पचीस साल वाले के लिए गीता और उपयोगी, अनिवार्य है क्योंकि उसके सामने पूरा जीवन पड़ा हुआ है क्योंकि यही वो समय है जब वो अपने जीवन की आधारशिला रख रहा है, यही वो समय है जब वो अपने…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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