मेरा मन और युवाओं का मन, आपका बहुत विरोध करता है

मेरा कोई ऐसा इरादा नहीं है कि अगर कोई चीज़ तुम्हें सुख दे रही हो तो वो मैं तुमसे छीन लूँ और तुम्हारे हाथ में काँटे थमा दूँ, दुख थमा दूँ। तुम मुझे आश्वस्त कर दो कि तुम्हारे हाथ में ये जो अश्लील साहित्य होता है इससे तुम्हें वाकई सुख, मौज-मस्ती मिलती है, तो मैं कहूँगा इसी को पकड़ो, इसी को भजो, इसी के साथ जिओ, खाओ, छोड़ दो गीता को, किसी आध्यात्मिक ग्रंथ की कोई ज़रूरत नहीं है, न बोध की ज़रूरत है, न बुद्धि की।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org