मेरा अपना क्या है?
वक्ता: तुमने बड़ी ख़ूबसूरत बात कही कि जो कुछ है वो बाहर से है। ठीक-ठीक देख पा रहे हो कि मन में जो कुछ भरा हुआ है वो दूसरों का दिया हुआ है और दिया ही नहीं है, देने में तो ऐसा लगता है किसी ने तुम पर कुछ उपकार किया हो, दूसरों ने ज़बरदस्ती घुसा दिया है तुम्हारे मन में, बिना तुम्हारी अनुमति के। तुमसे कभी पूछा नहीं गया कि क्या ये तुम्हारे मन में बैठा दूँ? तुमसे पूछा नहीं गया, तुम्हारी सहमति नहीं थी इसमें लेकिन तुम्हारे मन में डाल दिया गया पूरे तरीके से। शोषण है ये एक तरीक़े का, हिंसा है। अब पूछ रहे हो कि ये सब अगर बाहरी है तो मेरा अपना क्या है?
ठीक अभी देख पा रहे हो ये बाहरी है? क्या ये देख पाना भी बाहरी है? सब कुछ बाहरी है, ये तुम्हें दिख रहा है। मतलब, कोई है ज़रूर जो ये देख रहा है कि सब बाहरी है, वो असली तुम हो। अगर तुम सिर्फ़ बाहरी विचारों का, धारणाओं का एक समूह मात्र होते, तुम्हारे भीतर सब कुछ सिर्फ़ बाहरी ही बाहरी होता तो तुम जान कैसे पाते सब बाहरी है? निश्चित रूप से कोई और भी है जो बाहरी नहीं है और वो ये जान रहा है कि सब बाहरी है, वो तुम हो। वो जो जानने की शक्ति है, उसको चेतना कहते हैं, इंटेलिजेंस, वो तुम हो।
देखो इस कैमरे को, इसका सब कुछ बाहरी-ही-बाहरी है। इसका डिज़ाइन भी बाहर से आया है, इस पर एक ब्रैंड का लेबल लगा दिया गया है, वो भी बाहरी है, इसका एक मालिक है, देखो वो भी बाहरी है, जो कुछ इसके भीतर समा रहा है वो भी बाहरी है। पर क्या ये कैमरा कभी इस बात को समझ सकता है? क्या ये कैमरा कभी तुम्हारी तरह उठ कर सवाल करेगा कि मेरा तो सब कुछ बाहरी है? निश्चित रूप से तुम में कुछ है जो इस बात को समझ पा…