मृत्यु का स्मरण, अमरता की कुंजी

साँझ पड़ी दिन ढ़ल गया, बाघन घेरी गाय

गाय बेचारी ना मरै, बाघ भूखा जाए

~ संत कबीर

वक्ता: जीवन का संध्याकाल आता है। स्पष्ट एहसास होता है कि उम्र, अब बीत रही है, और मौत लगातार करीब आती जा रही है।

आदमी का पूरा जीवन ही, क्रमशः बीतते जाने की कहानी रहता है। प्रतिपल हम बीतते जाते हैं, और प्रतिपल, जिसे हम अपना अंतिम क्षण मानते हैं, वो करीब आता ही जाता है, आता ही जाता है। हम चैतन्य रूप से उसका विचार करें, चाहे न करें, पर हर बीतते क्षण, को मन जान ही रहा है। हर बीतते क्षण, के साथ, मौत की आहट, बढ़ती ही जा रही है। मन को विचार रूप में नहीं, तो वृत्ति रूप में, इसका पता है ही।

क्यों है मौत की आहट? क्यों सुनाई देती है लगातार, मौत की पद चाप? मौत की पदचाप क्यों सुनाई देती है, ये समझना है, तो, समझना ये पड़ेगा कि समय ही क्यों है? जब तक समय है, तब तक मौत का डर रहेगा। जब तक भविष्य है, तब तक मौत का डर रहेगा। है ही क्यों भविष्य? है ही क्यों समय?

जिसे हम जीवन कहते हैं, उसमें जो कुछ भी है, वो इसीलिए है, क्योंकि वो, भटका हुआ है, खोया हुआ है, टूटा हुआ है, बिछड़ा हुआ है। जीवन में जो कुछ भी ‘है’, जिसे हम होना कहते हैं, सकल संसार, समस्त पदार्थ, सारे विचार, सारे सम्बन्ध, वो मात्र बेचैनी है; दूर होने की बेचैनी, कुछ खोया हुआ होने की बेचैनी, किसी तरह उसको दुबारा पा लेने की बेचैनी।

सब कुछ एक इंतज़ार है, एक अनवरत प्रतीक्षा है दुबारा वहीं समाहित हो जाने की, जहां से सब उद्भूत…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org