मूल्य आपके चुनाव का है, स्थिति का नहीं
आचार्य प्रशांत: तो यह सूत्र स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है। मूल्य आपकी चेतना का है, आपके शरीर का नहीं और मूल्य आपके चुनाव का है, आपकी स्थिति का नहीं। अच्छे से पकड़ लीजिए इसको — मूल्य आपकी चेतना का है, आपके शरीर का नहीं और मूल्य आपके चुनावों का है, आपकी स्थिति का नहीं।
जिसको आप बुरी स्थिति कहते हैं, उस बुरी-से-बुरी स्थिति में भी जो व्यक्ति श्रेष्ठ चुनाव कर रहा है, वह बेहतर है उस व्यक्ति से जो आपके मुताबिक बेहतर-से-बेहतर स्थिति में है लेकिन घटिया चुनाव कर रहा है। स्थिति नहीं देखो किसी की भी, स्वयं को देखना हो चाहे किसी अन्य व्यक्ति का मूल्यांकन करना हो, स्थिति नहीं देखो, उसके चुनावों को देखो।
शरीर तुम्हारी स्थिति है, चेतना तुम्हारा चुनाव है। शरीर तुम बदल नहीं सकते और चेतना बस वैसी ही होती है जैसा तुमने उसे बदल-बदलकर बना दिया होता है। शरीर से बड़ा बंधन दूसरा नहीं और चेतना से बड़ी मुक्ति दूसरी नहीं।
दिखा दो मुझे, कौन है महापुरुष जो अपने दो हाथों को छः हाथ बना पाया हो? दो हाथ माने दो हाथ का बंधन। दो को न एक कर सकते हो, न छः कर सकते हो। दो कान माने दो कानों का बंधन, न दो को एक कर सकते हो, न छः कर सकते हो। शरीर बंधन है। पुरुष पैदा हुए तो पुरुष अब जीवन भर पुरुष ही रहना है, बंधन है कि नहीं है? अपनी नहीं चल सकती अब इसमें, पुरुष हैं तो हैं। स्त्री पैदा हुए तो स्त्री ही रहना है, अच्छा लगे, बुरा लगे।
शरीर बंधन है इसीलिए शरीर से मुक्ति चाहिए। चेतना महामुक्ति है। जो जितना शरीर से जुड़कर जिएगा, वह उतना बंधन में जिएगा। जो जितना चैतन्य भाव में जिएगा, वह उतना मुक्ति का जीवन जिएगा। चेतना महासुख है, मुक्ति परमानंद है और एक शरीर-केन्द्रित जीवन जीना ही महादुःख है।