मूर्ति व अन्य धार्मिक प्रतीकों का महत्व

आखिरी सवाल है। वह यीशु मसीह के शूली चढ़ने को लेकर, उस विषय पर है। सवाल बिलकुल वह नहीं है पर वो जिस परिवेश में है, उस परिवेश के बारे में मैं आपसे जानना चाहूँगा। ईसाईयों में, या जो लोग यीशु मसीह को या ईसाई धर्म को भी मानते हैं, उनमें प्रतीकात्मक तौर पर जो सबसे उपयुक्त चिन्ह है जो अभी ज़िंदा है वो है — क्रॉस*। और उसका क्या *सिम्बॉलिज़म (प्रतीक) है उसपर चर्चा करना उतना अहम नहीं है पर मैं आपसे सुनना चाहूँगा कि सिम्बॉलिज़म का क्या महत्त्व है?

क्या ऐसा है कि उस क्रॉस के माध्यम से ही, उस क्रॉस पर ही टिक कर यशु मसीह हमारे साथ अभी तक ज़िंदा हैं? और क्या ऐसा है कि जो शिव जी की जो मूर्ति यहाँ पर रखी हुई है, हिन्दू आस्था के अनुसार ये सिर्फ मूर्ति नहीं है, ये शिव जी हैं। आपने भी किसी जगह कहा है कि — "मूर्ति तुम्हें दिख रही है, मुझे तो साक्षात शिव दिख रहे हैं।"

जैसा समाज बन रहा है, इन मूर्तियों को सीधे तरीके से किंडर गार्टन नॉनसेंस (बच्चों की बातें) लेकर इन्हें रिजेक्ट (अस्वीकार) कर दिया जा रहा है। सिम्बॉलिज़म की क्या अहमियत है, न सिर्फ धर्म में बल्कि राजनीती में? क्योंकि अभी एक बहुत ही हीटेड पोलिटिकल (गर्म राजनैतिक) मुद्दा है कि सरदार बल्लभ भाई पटेल की जो स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाई जा रही है, उसको एक नज़रिए से देखें तो एक बहुत ही हीटेड पोलिटिकल डिबेट है कि "क्या है, पैसा कहाँ से आ रहा है, कहाँ जा रहा है।"

पर अगर हम उसको, आज की जो पूरी चर्चा है उसके परिवेश में देखें, तो धर्म के लिए और समाज के लिए भी प्रतीकों का होना क्यों ज़रूरी है? क्या प्रतीकों के खत्म होने से, जो बात प्रतीकों के पीछे छुपी हुई है, उनके खत्म होने का भी खतरा है?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org