मूर्तिपूजा का रहस्य

‘शिव’, ‘विष्णु’, माने छवियाँ, मूर्तियाँ। ब्रह्म अमूर्त हैं, विष्णु मूर्त हैं। उनकी अभिकल्पना, उनकी रचना बड़े बोध से, बड़े ध्यान से हुई है। साकार व्यक्ति, साकार मन, जब इन साकार मूर्तियों पर ध्यान करेगा, तो वो साकार का उल्लंघन करके, साकार को पार करके निराकार में प्रवेश कर जायेगा। जैसे कि कोई पुल को पार करके दूसरे तट पर पहुँच जाता है।

मूर्ति इसलिये है ताकि तुम अमूर्त तक पहुँच सको।

मूर्ति, मूर्त के लिये है।

तुम क्या हो? मूर्त। क्योंकि तुम मूर्त हो, इसीलिये तुम्हें मूर्ति दी जाती है। पर हर मूर्ति से काम नहीं चलेगा। जो साकार हो, जो पकड़ में आ सके, सो मूर्त है। हर इंसान मूर्त है। नहीं, कोई ख़ास मूर्ति चाहिये। ‘शिव’, ‘विष्णु’, वो ख़ास मूर्तियाँ हैं। विधियाँ हैं, तरकीब हैं, सीढ़ी हैं, पुल हैं। जितने तरीके से कहो, उतने तरीके से बोलूँ।

इस पार से उस पार ले जाते हैं।

तुम्हारे लिये ज़रूरी है, क्योंकि तुम्हें तो मूर्ति ही चाहिये। मूर्ति पर ध्यान करते हो, आगे निकल जाते हो। लेकिन उस ध्यान की एक शर्त है। मूर्ति पर अटक मत जाना। पत्थर का नाम ‘शिव’ नहीं है। लोग मूर्तियों पर खूब अटकते थे, इसीलिये कबीर साहिब आदि संतों को मूर्तिपूजा का कितना विरोध करना पड़ा। क्योंकि लोग मूर्ति पर ही अटक जाते थे। कबीर साहिब की वाणी है:

“कितनी मूरख दुनिया है, जो मूरत पूजन जाये,
तासे तो चक्की भली, जाका पीसा खाये।”

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org