मुझे इतनी ठोकरें क्यों लगती हैं?
सोना, सज्जन, साधुजन, टूट जुड़े सौ बार
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार
~ संत कबीर
वक्ता: क्या है टूटना? और जुड़ना क्या है? एक टूटना-जुड़ना तो वो होता है, जो हम लगातार अनुभव करते ही रहे हैं और दुनिया में भी रोज़ होता देखते हैं। मन कहीं जाकर लग गया तो उसको हम कहते हैं कि जुड़ जाना और कहीं विरक्त हो गया, तो उसको हम कहते हैं टूट जाना। यहाँ पर टूटना, जुड़ने का विपरीत और विरोधी होता है। एक दूसरा जुड़ना भी होता है, जिसमें कोई दो अलग-अलग इकाइयाँ होती ही नहीं जुड़ने के लिए। इसीलिए उसमें जुड़ने और टूटने का वास्तव में कोई सवाल नहीं है और वहां जो है, एक ही है और एक ऐसा है कि अवछिन्न और अखंड है। एक ही है, और एक ही रहता है। तब भी एक रहता है जब लगे कि एक है, जब लगे कि जुड़ाव है और तब भी एक ही है जब लगे कि टुकड़े हो गए, टूट गए, बिखर गए।
हमारी कोशिश लगातार ये रहती है कि दुनिया के तल पर जो टूटना-जुड़ना है, उसमें किसी तरीके से जुड़ने को स्थायित्व मिल जाए। हम चाहते हैं कि ऐसा जुडें कि कभी न टूटें। वहां का जुड़ना, हमेंशा टूटने की छाया में होगा। वहां के जुड़ने के ऊपर, हमेंशा टूटने की तलवार लटकती रहेगी। असल में वहां का जुड़ना अर्थहीन है, टूटने के बिना। वहां अगर टूटने की बात न हो, टूटने की सम्भावना न हो, टूटने का अनुभव न हो, तो जुड़ने का भी कुछ पता नहीं चलेगा। और जुड़ने में जो प्रसन्नता अनुभव होती है, वो भी नहीं होगी अगर टूटने की छाया न रही हो, सम्भावना न रही हो। हमारी सारी तलाश बस उसी तल पर है, जिस तल पर टूटना, जुड़ने का द्वैत विपरीत है और उस तल…