मुक्ति रोने से नहीं मिलती
प्रश्न: आचार्य जी, कभी-कभी बहुत गहरा भाव उठता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर खड़ी हो जाऊँ, और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाऊँ और कहूँ, “अब और नहीं।” कभी अनजाने में खड़ी भी हो जाती हूँ, फ़िर ठिठक जाती हूँ। आचार्य जी, ये ज्ञान, विज्ञान, कर्म, मुझे कुछ समझ नहीं आता, और मैं समझना भी नहीं चाहती शायद। बस यही ग़हरा भाव है कि आपके चरणों में गिरकर बिलख-बिलख कर रो लूँ, और बस रोती रहूँ।
रोते-रोते प्राण निकल जाएँ, तो ही ठीक है। ये रोज़-रोज़ की पीड़ा, वेदना बहुत है।
आचार्य जी, मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: आशा, मुक्ति काश कि रो-रो कर, तड़प कर, प्राण त्यागने से मिल सकती। नहीं मिलती है, बहुत महंगी है। अगर इतने में भी मिल जाती कि कोई वेदना में, छटपटा के, रो के प्राण त्याग दे, और मुक्त हो जाए, तो भी मुक्ति सस्ती थी। ऐसे भी नहीं मिलती। तुम ऐसे नहीं पाओगे।
मुक्ति का तो एक ही तरीका है — एक-एक करके अपने बंधनों को पहचानों, और काटते चलो।
रोने-तड़पने भर से कुछ हो नहीं पाएगा।
मैं तुम्हारी वेदना समझता हूँ, सबकी वेदना समझता हूँ। ये तक कह सकते हो कि अनुभव करता हूँ। लेकिन ये भी जानता हूँ कि ये वेदना अधिकांशतः व्यर्थ ही जाती है।
आँसू मत बनाओ वेदना को।
आग बनाओ!
चिल्लाओ नहीं, कल्पो नहीं। संयमित रहकर, अपने दर्द को अपनी ताक़त बनाओ। आँसुओं से तो बस गाल गीले होते हैं, तुम्हें आग…