मा विद्विषावहै ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

मा विद्विषावहै ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

आचार्य प्रशांत: गुरु और शिष्य जब आमने-सामने बैठे हैं देह रूप में तो है तो दोनों जीव हीं। बस एक जीव है जिसकी चेतना ऊँचाई पा चुकी है और उन ऊँचाइयों से अपने द्वारा पाए गए अमृत को बिखेरना चाहती है, नीचे वालों पर उड़ेलना चाहती है ताकि जो नीचे हो वो भी ऊपर आ सके। चेतना की ऊँचाई की एक अनिवार्य निशानी होती है सद्भावना, करुणा, प्रेम। जो ऊँचा उठ गया उसके पास कोई विकल्प ही नहीं रह जाता; उसे नीचे की ओर हाथ बढ़ाना ही पड़ता है- नीचे वाले को ऊपर खींचने के लिए यही ऊँचाई की पहचान है। जो ऊँचे पहुँच गया हो और निचाई को त्याग दे, निचाई से कोई मतलब ही न रखे उसकी ऊँचाई बड़ी निजी है, बड़ी व्यक्तिगत क़िस्म की है इसलिए बड़ी सीमित और बड़ी छुद्र है।

तो बैठे हैं गुरु और बैठे हैं शिष्य और दोनों एक साथ प्रार्थना कर रहे हैं क्योंकि जो ऊपर पहुँची हुई चेतना है वो भी अभी अपने आपको अभिव्यक्त तो किसी जीव के माध्यम से ही कर रही है। वो चेतना है तो किसी जीव की ही। ऊँची है पर है वो अभी भी इस पार्थिव दुनिया की ही। उसने अभिव्यक्ति के लिए जो माध्यम, जो करण चुना है वो देह ही है और देह दोषों का घर होती है। बात भले ही ऊँची से ऊँची कही जा रही हो लेकिन कही तो एक देहधारी मनुष्य के द्वारा ही जा रही है न? उसकी देह के ही माध्यम से। देह न हो तो उपनिषदों की भी अभिव्यक्ति हो नहीं पाएगी। एक दैहिक, पार्थिव गुरु चाहिए न जो बैठा हो आपसे बात करने के लिए। नहीं तो मौन से, और शून्य से, और निराकार से कैसे बात कर लोगे? आ रही है बात समझ में?

तो गुरु को पता है कि बहुत ऊँचे स्थान पर विराजता है वो लेकिन उसको ये भी पता है कि अभी वो जो चुनौती उठा रहा है, जो सहायता करने का बीड़ा उठा रहा है वो बहुत ख़तरों से भरा हुआ खेल है। क्योंकि नीचे वाले का हाथ थाम पाने के लिए ऊपर वाले को भी कई बार झुकना पड़ता है, पहली बात। जो नीचे है उसका हाथ थामना है तो ऊपर वाले को झुकना पड़ेगा और दूसरी बात जिसका आप हाथ थाम रहे हो उसे ऊपर उठाने के लिए, वो आसानी से तो राज़ी होता ही नहीं है ऊपर उठने के लिए। जब वो ऊपर उठने के लिए राजी नहीं होता तो जो झुका हुआ है, कई बार उसे और झुकना पड़ता है और जो नीचे वाला है चूँकि आप उसकी मदद करने के लिए झुक रहे हो इसीलिए ये संभावना होती है कि नीचे वाले के अड़ियलपने पर ज़िद्द पर और मूर्खता पर, गुरु को क्रोध भी आ जाए। बहुत सम्भावना है! कहानी पूरी समझ पा रहे हो?

देखो वेदों को कहते हैं अपौरुषेय माने वहाँ जो बात कही जा रही है वो पार्थिव नहीं है, वो किसी व्यक्ति माने पुरूष की अपनी निजी बात नहीं है, वो बात बहुत दूर की, बहुत आगे की, आसमानों की है, पृथा की, पृथ्वी की है ही नहीं। तो इसीलिए वेदों को कहते हैं अपौरुषेय कि वहाँ जो बात हो रही है वो किसी इंसान की अपनी बात नहीं हो रही है ये ऊपर से…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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