मार्क्स, पेरियार, भगत सिंह की नास्तिकता

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा कि आज के जितने भी लिबरल (उदार) चिंतक इत्यादि हैं, वे कोई भी पराभौतिक हस्ती को पूर्णता नकार देते हैं, और कहते हैं कि, “जो भी है, वह यहीं आँखों के सामने है”। भगत सिंह ने भी कहा कि दुनिया में ईश्वर नाम की कोई चीज़ नहीं है, पेरियार ने भी ऐसा ही कहा, मार्क्स ने भी इसी तरफ इशारा किया। तो क्या आप आज के उदार चिंतकों को, और भगत सिंह, पेरियार और मार्क्स को एक ही तल पर रख कर तुलना कर रहे हैं?

आचार्य प्रशांत: अगर कुछ नहीं है पराभौतिक, तो जो है, वह सिर्फ भौतिक है, ठीक? फिर तो मूल्य अगर किसी चीज़ का है, तो बस भौतिकता का है। भौतिकता माने पार्थिवता, शारीरिकता, ठीक? अगर पराभौतिक कुछ नहीं है, तो एक ही चीज़ कीमती बची न, क्या? ये शरीर। और अगर सिर्फ शरीर ही कीमती है, तो भगत सिंह ने शरीर का त्याग करना क्यों स्वीकार किया?

समझ में नहीं आ रहा क्या कि जब भगत सिंह कहते थे कि वो नास्तिक हैं, तो वो वास्तव में परंपरागत धर्म, सड़े-गले धर्म, संस्थागत धर्म को नकार रहे थे। नहीं तो एक ऊँचे आदर्श के लिए, शरीर की आहुति दे देने से बड़ा धार्मिक काम क्या होगा? अगर कोई नौजवान सच्चे अर्थों में धार्मिक हुआ है, तो वह तो भगत सिंह स्वयं हैं।

मुझे बताओ, तुम अपना प्राणोत्सर्ग कर रहे हो, तुमने तो पूरी भौतिकता ही खो दी न अपनी! अगर जान चली गई, तो ज़रा भी भौतिकता बची? तो कुछ तो होगा न जो भौतिकता से ऊँचा होगा, जिसके लिए तुम अपनी भौतिकता न्योछावर कर रहे हो? माने तुम मान रहे हो न कि इस भौतिक शरीर से कुछ ऊँचा होता है? भगत सिंह ने उस ऊँचे लक्ष्य को नाम दिया था — ‘आज़ादी’। फर्क नहीं पड़ता तुम क्या नाम दे रहे हो, इतना मानना काफी है कि तुम्हारी शारीरिक सत्ता से ज़्यादा कीमत किसी और चीज़ की है।

भगत सिंह का जीवन ही इस बात का प्रमाण है। बाईस-तेईस साल में वो कह रहे हैं, “नहीं चाहिए बाकी पूरी ज़िंदगी”। अभी वह साठ-सत्तर साल और जीते, बोले, “नहीं जीना है! शरीर की हैसियत क्या है?” ये तो संतो वाली बात हो गई न बिल्कुल। “नहीं जीना! शरीर की हैसियत क्या है? आज़ादी बड़ी चीज़ है! आज़ादी चाहिए!” अगर वो, दोहरा रहा हूँ, शारीरिकता मात्र में विश्वास रखते, तो जान देने को क्यों राज़ी हो जाते? शरीर गँवाने को क्यों राज़ी हो जाते, अगर शरीर ही अंतिम सत्य होता उनका, बोलो? आ रही है बात समझ में?

लेकिन फिर भी, चाहे मार्क्स हों, पेरियार हों, भगत सिंह हों, कई अन्य विचारक हों, इन सब लोगों ने धर्म को न सिर्फ नकारा बल्कि धर्म को अपशब्द भी कहे। मैं उनसे सहानुभूति रखता हूँ। उन्होंने जिस धर्म को नकारा, वो था ही इस लायक कि उसे लात मार दी जाए। जो उन्होंने करा, मैं भी वही करना चाहूँगा। पर भूलिए नहीं, कि वो किस धर्म को नकार रहे थे।…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org