मारा एकमात्र कर्तव्य!

मारा एकमात्र कर्तव्य!

यस्वतंरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।१७।।

किन्तु जो लोग सत्य में ही अनुरक्त, तृप्त और संतुष्ट हैं उनके लिए तो कर्तव्य कर्म नहीं बचते।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १७

आचार्य प्रशांत: सुंदर बात कही है! पिछला श्लोक समाप्त हुआ था ये कहने पर कि जो लोग कामनाओं के ही पीछे भागते हैं, वो अपना जीवन व्यर्थ गँवाते हैं। और अगले श्लोक में शुरुआत में ही कह रहे हैं, ‘लेकिन’, ‘किन्तु’ से शुरुआत हो रही है, ‘लेकिन जो लोग सत्य में ही अनुरक्त, तृप्त और संतुष्ट हैं, उनके लिए तो कर्तव्य कर्म नहीं बचते।‘ और इससे बड़ी रिहाई क्या हो सकती है? समझ रहे हो?

ये जितने कर्तव्य कर्म विधान में हैं, समाज में चलते हैं, नैतिकता में चलते हैं, ये सारे-के-सारे उनके लिए हैं जो अपनी वासनाओं के पीछे भागते हैं। ऐसो को ज़रा रास्ते पर रखने के लिए नीति बनाई जाती है, वही नीति फिर मोरैलिटी कहलाती है। क्योंकि पता है कि कामना अंधी होती है, व्यक्ति कुछ भी करेगा। उसे कुछ भी करने से रोकने के लिए फिर नैतिकता होती है, एथिक्स (आचार नीति) होते हैं। कुछ कर्तव्य बता दिए जाते हैं, कोई किरदार थमा दिया जाता है, एक पहचान दे दी जाती है, एक पात्र बना दिया जाता है तुम्हें कि तुम ऐसे हो, तुम्हें ऐसे जीवन जीना है। तुम पिता हो, तुम इस-इस तरीके से व्यवहार करोगे। तुम माँ हो, तुम्हें ऐसे-ऐसे करना है। तुम किसी जगह पर नियुक्त हो, कर्मचारी हो, तुम्हें इस-इस तरीके का — या तुम नागरिक हो देश के, तो तुम्हें ऐसे-ऐसे काम करना है। और सामान्य मनुष्य…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org