माया या प्रकृति को हमेशा स्त्रीलिंग में ही क्यों सम्बोधित किया जाता है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वृत्ति को या उस शक्ति को जो हमें समझने नहीं देती या देखने नहीं देती या जिस कारण से फँसे हुए हैं, उसको जनरल (सामान्य), न्यूट्रल (उदासीन) भी रखा जा सकता था, जैसे ब्रह्म कहते हैं तो जनरल न्यूट्रल होता है। इंसान रूप में जो स्त्री है उसमें और माया में क्या समानता है जिसके कारण माया को महामाया भी कहते हैं?

आचार्य प्रशांत: दोनों जन्म देती हैं। जन्म देने की प्रक्रिया में जो दैहिक पुरुष होता है, उसकी अपेक्षा दैहिक स्त्री का दस गुना योगदान होता है। जन्म देने की प्रक्रिया में पुरुष का जो पूरा योगदान है, उसका जो पूरा किरदार ही है, वो कितना न्यून है। और माँ जन्म भी देती है नौ माह तक गर्भ में रखकर, उसके बाद अगले दो वर्ष तुम्हें पोषण देती है और उसके बाद भी कई और वर्षों तक तुमको सहारा और संस्कार देती है। तो जो दैहिक पुरुष होता है, उसकी अपेक्षा दैहिक स्त्री को जन्मदाता मानना कहीं ज़्यादा तार्किक बात है न।

लॉजिकल (तार्किक) है कि तुमको अगर जो माया है, उनको किसी लिंग की उपाधि देनी ही है तो स्त्री लिंग की दो। क्योंकि अभी तुम बात अपने जन्म की कर रहे हो, तुम अपने जन्मदाता या जन्मदात्री की बात कर रहे हो। उनको तुम किस लिंग से विभूषित करना चाहोगे? पुरुष या स्त्री किस रूप में देखना चाहोगे? ज़्यादा तार्किक बात यह है कि स्त्री के रूप में देखो क्योंकि जन्म में स्त्री का योगदान ज्यादा होता है। इसलिए जब हमने संकेत बनाए, चिह्न बनाए या कथाएँ बनाईं तो उसमें जन्म देने वाली शक्ति को स्त्री रूप दिया गया। बस यही है।

प्र: हाँ, पर इसी में क्रिएटर (रचयिता) हमेशा ब्रह्मा जी को कहा गया है जो स्त्री नहीं हैं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org