माया तो राम की ही दासी है
--
तव माय बस फिरऊॅं भुलाना ।
ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ।।
~ संत तुलसीदास
आचार्य प्रशांत: “तव माय”, तुम्हारी माया। “बस फिरऊॅं भुलाना”, उसी के वश होकर भूला-भूला सा, भटका-भटका सा फिर रहा हूँ। “ताते”, उस कारण। “मैं नहिं प्रभु पहिचाना”, मैं प्रभु को पहचान नहीं पाया।
हास्य है भक्त का — विनोद। अपनी स्थिति का वर्णन किया जा रहा है, जाने प्रभु को ही उलाहना दी जा रही है, जाने पढ़ने वालों के साथ मज़ाक किया जा रहा है। एक तल पर तो सिर्फ़ अपनी स्थिति का वर्णन है: “हे प्रभु, तुम्हारी ही माया के वशीभूत होकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। इसी कारण तो तुम्हें पहचानता नहीं।” ये एक तल की बात है। दूसरे तल पर जैसे सत्य को ही मीठी उलाहना दी जा रही हो कि, “मुझे क्यों कष्ट देते हो? मुझसे क्यों रूठते हो? मेरा क्या दोष है? तुमसे अगर दूरी मेरी है, तो ये बताओ सर्वशक्तिमान तो तुम ही हो, जगत तो तुम्हारा है, चलती तो तुम्हारी ही है। मुझसे अगर दूरी है तुम्हारी, तो निश्चित है कि मुझे दूर भी तुम्हीं ने किया है, माया तो तुम्हारी ही है, तुम्हीं ने भेजा है, तुम्हारी अनुचरी है, तुम्हारा खेल है। जब खेल तुम्हारा है, तो दंड मुझे क्यों?”
और आगे जाकर देखें तो मज़ाक है। भक्त का विनोद बड़ा सूक्ष्म होता है। पहला विनोद तो यही होता है कि वो अपने आप को भक्त कहता है, भगवान नहीं। दिल-ही-दिल में उसे भी सब पता है, पर दिल की बात दिल में रहे तो अच्छा है। जब जान ही रहे हो कि माया राम की है, तो राम से दूर कहाँ रह गए? ये जानना ही तो ‘राम’ कहलाता है। माया में तो मात्र वो फँसा जिसने माया को राम से भिन्न जाना। कहते हैं न कबीर:
दुविधा में दोउ गये, माया मिली न राम ।।
दोउ माने, ‘दो’, माने भिन्न। जिसने माया को राम से भिन्न माना उसने राम को गँवाया। कबीर हमें पढ़ा गए हैं कि राम ही को नहीं गँवाया, माया को भी गँवाया। ये बात बड़ी गूढ़ है, समझने जैसी है: अगर दोनों भिन्न थे, तो दोनों को एक साथ क्यों गँवाया? ये एक चीज़ है (हाथ में मेज़ पर रखी हुई एक वस्तु उठाते हुए), ये दूसरी चीज़ है (हाथ में मेज़ पर रखी दूसरी चीज उठाते हुए), बिल्कुल संभव है कि मैं इनमें से किसी एक को पा लूँ। संभव है कि नहीं? बल्कि दोनों को एक साथ पाना ज़रा मुश्किल होता है। दो में से किसी एक को पाना तो ज़्यादा सुविधा है, है कि नहीं? पर संत हमें सिखा गए हैं कि जो राम को छोड़कर माया के पीछे भागते हैं उन्हें माया भी नहीं मिलती। ये खेल क्या है? वो समझ जाएँ, तो ये भी जान जाएँगे कि तुलसी कह क्या रहे हैं। अन्यत्र कहते हैं कबीर:
प्रभुता को सब कोई भजे, प्रभु को भजे न कोई ।