मान-अपमान हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों?
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।
सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित हैं अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ७
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, साफ़ लिखा है कि ‘सुख-दु:ख, मान-अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ शांत हैं’, पर ऐसा तो पूरी तरह हो नहीं पाता। मन तो दूसरों से मान की अपेक्षा रखता ही है। ख़ुद को समझा तो लेता हूँ कि ये मान इत्यादि इतने ज़रूरी नहीं हैं, पर मान पाने की और अपमान से बचने की चाह बार-बार वापस आ ही जाती है। क्या बोध से ही वृत्तियाँ कम होंगी या पूरी तरह मिट जाएँगी? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: * सब कुछ ठीक ही होता तो गीताकार को उपदेश देने की आवश्यकता क्या पड़ती? बोध, या शांति, या स्पष्टता या सरलता मनुष्य की प्राकृतिक स्थिति नहीं है।
दो जगह से आए हैं हम — एक प्रकृति से और दूसरे कहीं और से। प्रकृति से किस प्रकार आए हैं हम, यह जानना हो तो डार्विन और अन्य विकासवादियों को पढ़ लो। समूचा विज्ञान है, बहुत खोज हुई है, अनुसन्धान हुआ है, बड़े प्रमाण मिले हैं और मिलते ही जा रहे हैं।
मनुष्य ने प्रकृति में बड़ी लंबी यात्रा करी है और वह यात्रा आज भी चल रही है। प्रकृति बोध-शांति वग़ैरा नहीं जानती…