माँ-बाप तुम्हारी ही तरह आम हैं, उनसे विशिष्टता की उम्मीद अन्याय है
प्रश्नकर्ता: सर, माँ-बाप कहते हैं, “पढो! पढो!”, तो वो बोलते हैं कि तुम्हारे लिए ही तो बोलते हैं। लेकिन ऐसा लगता है जैसे वो अपने लिए ही बोलते हैं। कहीं न कहीं उन ही का उद्देश्य रहता है कि ये हो जाए, वो हो जाए। वो खेलता रहता है, खुश रहता है तो कहतें हैं कि तुम खेलते रहते हो, पढ़ने पर तुम्हें ध्यान नहीं है। अभी तक माँ बोलती हैं- “तुमको इतना हम लोगों ने सोचा था। तुम उस समय इतना महनत नहीं की। और तुम जो मन में आता है वही करती हो। बात नहीं सुनी, देखो ये फल है। ऐसे रहता तो ऐसे होता।” तो पहले मुझे लगता था मैंने ही कहीं गलती करी, मैं नहीं सुनती हूँ। लेकिन अब मुझे लगता है कि कहीं न कहीं उन्हीं की महत्वाकांक्षाएं हैं जो बच्चों को बोलते हैं “पढ़ते रहो! पढ़ते रहो!” उनको चिन्ता हो जाती है जब बच्चे पढ़ते नहीं हैं तो। जब वो खुश रहते हैं, खेलते रहते हैं — चिंता हो जाती है बच्चा खुश क्यों है! लगता है कोई परेशानी है कि खेल रहा है तो। उसे परेशानी नहीं है तो आपको क्या परेशानी है?
आचार्य प्रशांत: यहाँ कुछ माँएं भी बैठी हुईं हैं, उनसे पूछो कि क्या परेशानी है।
(श्रोतागण हँसते हुए )
श्रोता(प्रस्तुत छात्रों में से एक की माँ) १: नहीं, नहीं, हमें बुलाते हैं न जब रिपोर्ट कार्ड के लिए डांट पड़ती है माँ को! बाप तो जाते नहीं हैं!
श्रोता २: नहीं, मैं ऐसा कोई माँ को ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल रही हूँ। ये है कि थोड़ा समझने का मौका देना चाहिये कि बच्चा भी क्या करना चाहता है। उसको भी समझना चाहिये। हो सकता…