माँसाहार का समर्थन — मूर्खता या बेईमानी? (भाग-3)

प्रश्नकर्ता: पौधों में भी तो जान होती है, पौधों में भी तो भावनाएँ होती हैं, और पौधे भी तो दर्द का अनुभव कर सकते हैं। तो हमें उन्हें भी तो फिर भोजन के लिए नहीं मारना चाहिए। तो आप चाहे शाकाहारी हों, वीगन हों या माँसाहारी हों, एक ही बात है क्योंकि सब जीवित प्राणियों को मार ही रहे हैं, चाहे वो जीवित प्राणी कोई जानवर या पौधा हो।

आचार्य प्रशांत: दो-तीन बातें समझो।

पहली तो ये कि जीवित होने में और चैतन्य होने में, कॉन्शियस होने में अंतर होता है। महत्व जीवन का बहुत नहीं है, महत्व चेतना का है, कॉन्शियसनेस का है। आवश्यक नहीं है कि आप जीवित हों तो आप चैतन्य, माने कॉन्शियस भी हों। उदाहरण ले लो एक व्यक्ति का जो कोमा में पड़ा हुआ है। वो जीवित तो है, पर उसमें चेतना बहुत कम है। चूँकि उसमें चेतना बहुत कम है, इसीलिए तुमने सुना होगा कि कह देते हैं कि वो वेजिटेबल स्टेट (वानस्पतिक अवस्था) में है।

अब समझ गए तुम कि पौधों में और जानवरों में या मनुष्यों में अंतर क्या होता है।

बेशक पौधों में भी प्राण होते हैं, पर उनके पास चेतना बहुत निचले स्तर की, बहुत कम, बहुत न्यून होती है। तो आप पूछेंगे कि फिर जब कोमा में जो व्यक्ति है, वेजिटेबल स्टेट में जिसके पास जीवन तो अभी है, पर कॉन्शियसनेस नहीं है, तो उसकी देखभाल क्यों करते हैं?

उसकी देखभाल इस उम्मीद में की जाती है कि एक दिन उसमें चेतना भी आ जाएगी। इसी से समझ लो कि जीवन का महत्व बस तभी है जब उस जीवन में चेतना हो। नहीं तो जीवित शरीर पड़ा रहे और अगर उसमें चेतना की कोई संभावना, कोई आशा ना बचे, तो तुम व्यक्ति को वेंटिलेटर पर भी बहुत दिन तक नहीं रखोगे।

कोई व्यक्ति कोमा में है, और अगर डॉक्टर साफ कह दें कि “इसे हम ज़िंदा तो रख सकते हैं। आप कहिए तो पाँच साल, दस साल, बीस साल वेंटिलेटर पर ये जीवित तो रहेगा, लेकिन इस बात की संभावना कि ये दुबारा चैतन्य हो पाएगा, कॉन्शियसनेस रिगैन कर पाएगा, अब शून्य है। ये कभी दोबारा कॉन्शियस नहीं होगा।” तो क्या तुम उस व्यक्ति को जीवित रखना चाहोगे वेंटिलेटर पर?

क्यों नहीं रखना चाहोगे?

इसीलिए नहीं रखना चाहोगे क्योंकि महत्व जीवन का नहीं है, महत्व चेतना का है। कोई जीवित है और उसमें चेतना नहीं बची, तो तुम उसको फिर मरे समान ही मानते हो। और अगर कोई जीवित है और उसकी चेतना विकृत हो गई है, भ्रष्ट हो गई है, तो उसको भी तुम फिर विक्षिप्त करार देते हो, पागल जान लेते हो। उसको भी फिर तुम पागलखाने में डाल देते हो, उसके जीवन की फिर कोई विशेष कीमत नहीं करते तुम।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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