महापुरुषों जैसा होना है?

जिसको भी तुम मानते हो अपने से ऊँचा, जिसको भी सम्माननीय मानते हो, उसकी छवि लगातार आँखों में बसी रहें और आँखें ऐसी हैं नहीं कि जब तक वो भौतिक रूप से न देखें तब तक उनमें छवि बैठी रहे, तो भौतिक रूप से ही सही, एक तस्वीर लाकर टाँगो।

कोई ऐसा जिसके सामने झुकने की तबीयत किया करे। कोई भी ऐसा।

वो कोई काल्पनिक पात्र भी हो सकता है। वो किसी उपन्यास का भी कोई पात्र हो सकता है। कोई ऐसा होना चाहिए जिसका दर्शन मात्र तुममें तड़प जगा देता हो, चाहत जगा देता हो बदल जाने की और साथ ही साथ शर्म से भर देता हो अगर तुम बदल नहीं रहे हो। उसकी छवि सामने होनी चाहिए। उसके वचन लगातार कानों में पड़ते रहने चाहिए।

और ये मत कह देना कि वो तो अवतार थे, प्रबुद्ध थे, हम तो छोटे लोग हैं। तुम्हारी तरह थे, हमारी ही तरह थे बस उन्हें ऐसा रहना मंजूर नहीं था, उन्होंने कहा कि जब बेहतर जिया जा सकता है तो बेहतर ही जीयें न! मरना तो है ही, ऐसा तो है नहीं कि मर-मर के, सिकुड़-सिकुड़ के जीने से अमर हो जायेंगे।

एक संकुचित दमित जीवन जी करके हमें मिल क्या जाना है? हम बचा क्या रहे हैं?

जो हो सकते हो, जो होने के लिए पैदा ही हुए हो, वो हो क्यों नहीं जाते? एक बार स्वाद तो लेकर देखो ऊँचाइयों का, फिर नीचे आने का जी नहीं करेगा। जो ऊँचा जाता है, और ऊँचा जाता हैं, फिर और ऊँचा जाता है, फिर नीचे नहीं गिरता, थोड़ा परवाज लो तो, बस अभ्यस्त हो गये हो मिट्टी पर लोटने के और कोई बात नहीं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org