ममता स्वार्थ है, और मातृभाव प्रेम

प्रश्न: मैंने बहुत समय से देखा है बहुत सारे मामलों में की जो बच्चा होता है, उसे परिवारों में वस्तु की तरह रखते हैं। एक ऐसी वस्तु जो हमारे बहुत अच्छे सामाजिक होने को विज्ञापित करता है। यहाँ पर बस यही हो रहा है की हम बहुत सामाजिक प्राणी हैं और हमारे जो बच्चे हैं वो एक वस्तु हैं जो विज्ञापन के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। उसे नहीं बोलना ‘हाए’, वो अपना खोया हुआ है और उसे ज़बरदस्ती बोलने के लिए कहा जा रहा है ताकि आप अपने बच्चे को विज्ञापित कर सकें।

आचार्य प्रशांत: सही माँ-बाप मिलना बहुत बड़ी गनीमत है और बच्चा इसमें कोई भूमिका निभाता नहीं है कि उसके माँ-बाप कौन हों। ये तो बस किस्मत की बात होती है की आपको माँ-बाप कैसे मिल गए। और पूरा जन्म बीत जाता है इस से बाहर निकालने में।

प्र: अगर आप ‘माँ-बाप’ शब्द को बदल दें ‘गुरु’ से, तो ये सारी उलझनें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं।

आचार्य: हाँ! वास्तव में माँ-बाप हैं, उनमें माँ-बाप होने से पहले पात्रता होनी चाहिए गुरु होने की। माँ-बाप बने ही वही जो पहले गुरु होने की योग्यता रखते हों। बड़ा अजीब सा खेल है माया का। आमतौर पर जो गुरु होने की योग्यता रखते हैं उनमे माँ-बाप होने की रुचि कम हो जाती है। ऐसा नहीं की रुचि ख़त्म हो जाती है, पर संभावना कम हो जाती है। ये तो पक्का हो जाता है कि उनके बच्चा होंगे भी तो एक-दो ही होंगे, झड़ी नहीं लगाएँगे। अब कितना मज़ेदार हो अगर बुद्ध बाप बने, पर बनते ही नहीं। सोचिए बच्चा बुद्धा, वो घूम रहा है और इधर-उधर खेल रहा है। पर बुद्धों को बच्चा पैदा करने में कोई रुचि ही नहीं है। मीरा की बेटी हो, बचपन से ही नाच रही है। पर ऐसा होता नहीं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org