मन: हज़ार जुनून, एक सुकून!

मन: हज़ार जुनून, एक सुकून!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, समझाने वालों से हमेशा सुना है कि मन के विरुद्ध सावधान रहना चाहिए। लोग हमें कहते हैं कि मन के मते ना चालीये, लेकिन इच्छाओं, भावनाओं, और मन की लहरों से ऊपर उठने की कोई संभावना होती भी है? मन के पार जाना या मन से ऊपर उठना, अर्थ क्या है इसका?

आचार्य प्रशांत : पहले, जिसको आप मन कहते हो उसको समझना पड़ेगा, फिर समझ में आएगा कि मन के पार जाना या मन से ऊपर उठना ये बात क्या है, इसमें दम कितना है। ये जो कहा न इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं, मन की लहरें हैं, यही मन है। और इसमें ये जो इच्छाएँ उठती हैं, ये विचार आते हैं, भावनाएँ आती हैं, ये आपसे पूछ कर नहीं आतीं, आपकी सहमति से भी नहीं आतीं। मन अपने आपमें एक व्यवस्था है जो आपने बनायी नहीं है और जो आपके नियंत्रण में नहीं है। इसमें जो हो रहा है स्वयं ही हो रहा है, आपकी सहमति से नहीं हो रहा, आपकी अनुमति से नहीं हो रहा। मन आपसे पूछ कर नहीं चल रहा। हाँ आप ज़रूर मन के ग़ुलाम बन जाते हैं, जो भी भावना विचार वगैरह उठ रहे हैं आप उनके पीछे-पीछे चलने लग जाते हैं।

अब ये जो व्यवस्था है जिसको मन बोलते हैं ये बहुत पुरानी है, और इसका अपना एक उद्देश्य है। इसका उद्देश्य बस इतना ही है कि चलते रहो, ये एक चलती हुई व्यवस्था है जो बस चलते रहना चाहती है, उसको वास्तव में कहीं पहुँचना नहीं है, इसको बस चलते रहना है, बस गोल-गोल चक्कर में घूमते रहना है। वो चक्र में ना घूम रही होती तो शायद कहीं पहुँच भी जाती, पर उसके पास बस एक चक्र है। इच्छा करना, पाना, भोगना, फिर असंतुष्ट हो जाना, फिर इच्छा करना, फिर पाना, फिर भोगना, फिर असंतुष्ट हो जाना, जैसे अब एक…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org