मन हमेशा बेचैन क्यों रहता है?

मन वो, जिसमें अन्दर कुछ चलता रहता है।

कुछ तो चाहिए मन को और मन को कौन चाहिए?

जो अच्छा हो, सुन्दर हो, आकर्षक हो, जिसके पास जाकर उसे ‘सुकून’ मिलता हो।

मन लगातार उसी की तलाश में है, इसी कारण किसी एक जगह वो रुकता नहीं है।

अभी तक मन कहीं ठहरा नहीं, या ठहरा है?

ठहरने का मतलब होता है कि वहीं जाकर रुक गया, उसकी तलाश खत्म हो गयी, अब और कुछ नहीं चाहिए।

जिस दिन तुम्हारी पहली नौकरी लगती है, देखो ना तुम्हें क्या लगता है, ‘हो गया’। जिस दिन शादी करते हो उस दिन भी लगता है, ‘हो गया’। लोग गाड़ी खरीदते हैं, कहते हैं, यस आई हैव अराइव्ड, ‘हो गया’। जिस दिन गृहप्रवेश होता है, उस दिन भी यही, ‘हो गया’। जिस दिन व्यापार किसी खास आँकड़े पर पहुँचता है, दस करोड़ पर पहुँच गया व्यापार, ‘हो गया’। जिस दिन घर में बच्चा आता है, ‘हो गया’। आखिरी से आखरी ऊँचाई जहाँ हम पहुँच सकते थे, बिल्कुल चोटी फतह कर ली।

पर ऐसा होता नहीं।
हम भूखे ही मर जाते हैं।

जिस किसी ने ये सोचा कि एक परम विषय के अलावा किसी और विषय से उसको शांति, तृप्ति मिल जाएगी, पेट भर जाएगा; वो भूखा ही मरा।

आध्यात्मिकता कोई फूहड़ रूढ़-रिवाज नहीं है। वो ऊँची से ऊँची अक्लमंदी है।

आध्यात्मिकता साधारण बुद्धि वाले आदमी को समझ में ही नहीं आएगी। आध्यात्मिकता के लिए बड़ा शांत, बड़ा कुशाग्र मन चाहिए। ‘सूक्ष्म’, जो समझ सके की बात क्या है? जो देख सके कि चल क्या रहा है। मूर्खों को ये बातें समझ में ही नहीं आतीं। वो तो बस वही एक दूकान से दूसरी दूकान और बस खाली तब भी, खाली।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org