मन हमेशा उलझन में क्यों रहता है?

मन हमेशा उलझन में क्यों रहता है?

प्रश्न: आचार्य जी, मन हमेशा उलझन में क्यों रहता है? हमेशा मन में कुछ-न-कुछ क्यों चलता रहता है? इससे कैसे बाहर आएँ?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारा जो पूरा माहौल है, तुम्हारा जो अपना पूरा पर्यावरण है, उसकी सफ़ाई करनी पड़ेगी।

बीच-बीच में ऑक्सीजन मास्क लगा लेने से बहुत लाभ नहीं होगा, अगर रह ही रहे हो ज़हरीले धुएँ के बीच। वो जगह ही छोड़नी पड़ेगी। इससे कम में काम नहीं चलेगा। ये जगह भी एक तरह का ऑक्सीजन मास्क ही है, ये सत्संग भी एक तरह का ऑक्सीजन मास्क ही है। थोड़ी देर को खुलकर गहरी साँस ले पाते हो। पर लाभ क्या होगा अगर तुमने ज़िद ठान रखी है कि यहाँ से बाहर निकलकर तुम्हें धुएँ में ही नाक दे देनी है। पूरे इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) सफ़ाई किए बग़ैर बात नहीं बनेगी।

तो हटो न।

दिनरात अगर ऐसे माहौल में रह रहे हो जो तुम्हारी बेचैनी को ही बढ़ाता है, तो पा क्या रहे हो वहाँ रहकर? कौन-सा ऐसा लाभ है कि वहाँ डटे हुए हो? हटते क्यों नहीं? बैचेनी स्वभाव तो है नहीं। बेचैनी तो प्रभाव है, संस्कार है। बाहरी असर है।

तो अगर कोई बैचेन है तो बात ज़ाहिर है — ग़लत प्रभावों के बीच जी रहा है। देख लो कि किस बाज़ार में घूम रहे हो, किस दफ़्तर में दस घंटे बिता रहे हो, किन लोगों से बातचीत कर रहे हो, क्या खा रहे हो, क्या पी रहे हो। उन्हीं सबके कारण बेचैनी है तुम्हारी। अब सत्संग से निकलकर तुम उसी माहौल में वापिस लौट जाओ, जिसने तुम्हें इतना परेशान किया था कि तुम्हें आना पड़ा था, तो ये अक्लमंदी तो नहीं हुई।

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org