मन हमेशा उलझन में क्यों रहता है?

तुम्हारा जो पूरा माहौल है, तुम्हारा जो अपना पूरा पर्यावरण है, उसकी सफ़ाई करनी पड़ेगी।

बीच-बीच में ऑक्सीजन मास्क लगा लेने से बहुत लाभ नहीं होगा अगर रह ही रहे हो ज़हरीले धुएँ के बीच। वो जगह ही छोड़नी पड़ेगी। इससे कम में काम नहीं चलेगा। ये जगह भी एक तरह का ऑक्सीजन मास्क ही है, ये सत्संग भी एक तरह का ऑक्सीजन मास्क ही है। थोड़ी देर को खुलकर गहरी साँस ले पाते हो। पर लाभ क्या होगा अगर तुमने ज़िद ठान रखी है कि यहाँ से बाहर निकलकर तुम्हें धुएँ में ही नाक दे देनी है। पूरे इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) सफ़ाई किए बग़ैर बात नहीं बनेगी।

तो हटो न।

दिनरात अगर ऐसे माहौल में रह रहे हो जो तुम्हारी बेचैनी को ही बढ़ाता है, तो पा क्या रहे हो वहाँ रहकर? कौन-सा ऐसा लाभ है कि वहाँ डटे हुए हो? हटते क्यों नहीं? बैचेनी स्वभाव तो है नहीं। बेचैनी तो प्रभाव है, संस्कार है। बाहरी असर है।

तो अगर कोई बैचेन है तो बात ज़ाहिर है — ग़लत प्रभावों के बीच जी रहा है। देख लो कि किस बाज़ार में घूम रहे हो, किस दफ़्तर में दस घंटे बिता रहे हो, किन लोगों से बातचीत कर रहे हो, क्या खा रहे हो, क्या पी रहे हो। उन्हीं सबके कारण बेचैनी है तुम्हारी। अब सत्संग से निकलकर तुम उसी माहौल में वापिस लौट जाओ, जिसने तुम्हें इतना परेशान किया था कि तुम्हें आना पड़ा था, तो ये अक्लमंदी तो नहीं हुई।

किसी को पढ़कर तुम्हारा मन जब शांत होता है, तभी तुम सत्संग में आ पाते हो। इसका मतलब अन्यथा तुम्हारा दिमाग़ कैसा रहता है? अशांत रहता है। तो जियो धुएँ में। तुम्हारा चुनाव है कि तुम्हें ज़हरीली हवा में साँस लेनी है। कुछ लाभ मिल रहा होगा तुम्हें — रुपया-पैसा, मान-प्रतिष्ठा। तो उन लाभों को लिए जाओ। ज़हर का क्या है, पिए जाओ।

इस चीज़ का कोई इलाज नहीं होता कि ख़ुद ही चुनो, और ये जानते हुए भी कि जो तुमने चुना वो ज़हरीला है, उसको चुने ही जाओ बारबार, और कहो कि — “मैं परेशान हूँ,” तो रहो परेशान। तुम्हारी मर्ज़ी है। कई विकल्प होते हैं, कई रास्ते होते हैं, बहुत कुछ चुना जा सकता था। तुमने अपनी मर्ज़ी से कुछ चुना है। जो चुना है उसके परिणाम भुगतो। फिर शिकायत मत करो कि ज़िंदगी बड़ी अंधी जा रही है।

कुछ नहीं है किसी के जीवन की महत्ता, और कुछ नहीं है किसी के जीवन की मीआद। इंसानों को ही देखो, तो इस समय पृथ्वी पर क़रीब आठ सौ करोड़ इंसान हैं। और, और जीव-जन्तुओं को भी मिला दो तो न जाने कितनी अरब-ख़रब जीव-जन्तु सिर्फ़ इस छोटे से गृह पृथ्वी पर ही हैं। इनमें से तुम एक हो। बताओ क्या सत्ता है तुम्हारी!

तुम जियो चाहे मरो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। और तुम जियोगे तो कितना जी लोगे। बहुत जियोगे तो अस्सी साल, सौ साल। देखो पृथ्वी की…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant