मन नए से डरता है

आचार्य प्रशांत: जब वास्तव में कुछ नया सामने आता है तो हम डर जाते हैं। मस्तिष्क बस एक चीज़ चाहता है, सुरक्षा — बना रहूँ, समय में बना रहूँ, मर न जाऊँ। और ख़त्म न होने का उसका जो तर्क है, वो ये है कि जो पहले किया हुआ है वही दोबारा करो। जब पहले नहीं मरे तो आगे भी नहीं मरेंगे — ये उसने मरने से बचने का तरीका खोजा है, इसलिए तुम नए से हमेशा डरते हो।

लेकिन मस्तिष्क का जो बचने का तरीका है वो मूर्खता का है क्योंकि मस्तिष्क की दुनिया में नए का अर्थ है पुराने का दोहराना, लेकिन अस्तित्व में नया, नया है। अस्तित्व में नए का पुराने से कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम्हारे सामने जो कुछ भी आता है हर क्षण, वो पूर्णतया नया ही होता है और पहली बार ही आया हुआ है, और वैसा कोई क्षण दोबारा आएगा भी नहीं।

अब यहाँ पर बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती है। एक तरफ तुम्हारा ये मस्तिष्क है जो नए को समझता ही नहीं, पुराने ढर्रों पर चलता है, और दूसरी तरफ अस्तित्व है, जिसमें पुराना कुछ होता नहीं, सब कुछ नया-नया है।

चेतना में पुराना कुछ होता नहीं है, और दूसरा छोर है पदार्थ का, वहाँ सब पुराना-ही-पुराना है — इन्हीं दो पाटों के बीच में आदमी फँस कर रह जाता है।

इसी को कबीर ने कहा था, “दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय”।

और वो हम हैं जो पिसते रहते हैं — “साबुत बचा न कोय”। यही दो पाट हैं। कौन-से पाट? ‘अतीत’ और ‘वर्तमान’; ‘स्मृति’ और ‘चेतना’।

मन अतीत में जीना चाहता है या एक भविष्य ख़ड़ा करता है, और अतीत और भविष्य दोनों ही वर्तमान नहीं हैं। जीवन हमेशा

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org