मन को संयमित कैसे करें?
हम आमतौर पर ‘संयम’ का अर्थ समझते हैं धैर्य से, या नियंत्रण से। पतंजलि योग-सूत्र में आप जाएँगे तो पाएँगे कि ‘संयम’ का अर्थ है — मन को किसी विषय में दृढ़ता से स्थापित कर देना।
प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि “संयम कैसे करें?” प्रश्न ये होना चाहिए कि “संयम किसपर करें?”
मन को ले जाकर कहाँ बैठा दें? संयम किसपर करें?
मन बिल्कुल शांत हो जाए, मिट जाए, उसको बोल देते हैं — ‘आत्मा’। और मन विस्तार ले ले, पाँच इन्द्रियों का सहारा ले ले, एकदम फैल जाए, प्रकृति और संसार बन जाए, तो उसको कह देते हैं — ‘शरीर’।
इन्द्रियों के विषयों को कहते हैं ‘संसार’, और इन्द्रियों के भोक्ता को कहते हैं — ‘मन’। इन्द्रियाँ सब सामग्री जिसको ले जाकर देती हैं, उसको कहते हैं — ‘मन’।
तो है मन ही। मन का स्थूल और विस्तृत सिरा कहलाता है — ‘संसार’। ‘संसार’ माने जहाँ आपको सब पदार्थ, स्थूल पता चलते हैं। देह भी वही है, स्थूल। मन ने विस्तार ले लिया तो देह है, संसार है। वही मन शांत हो गया, बिन्दुवत हो गया, तो ‘आत्मा’ कहलाता है।
मन ही है।
ऐसा समझ लीजिए, बिंदु है — आत्मा, फिर मन है, और फिर पूरा विस्तार है, संसार है।
मन बैचैन और चंचल रहता है, लेकिन मन की आँखें ऊपर की ओर हैं, संसार की ओर। तो फिर वो चैन कहाँ खोजता है? संसार में। जबकि चैन उसको मिलता है अपने पीछे, अपने नीचे — मिटकर के, बिंदु होकर के। बिंदु हो जाना माने — मिट ही जाना।