मन को मुक्ति की ओर कैसे बढ़ाएँ?

शुरुआत दुःख से होती है।

तुम पूछ रहे हो, “कैसे मन को संसार से मोड़कर मुक्ति की ओर लगाया जाए? और फिर कैसे उसकी दिशा को मुक्ति की ओर ही रखा जाए?” दोनों ही बातें जो तुमने पूछी हैं, उनमें दुःख का बड़ा महत्त्व है।

शरीर का संसार से लिप्त रहना, संसार की ही ओर भागते रहना, संसार से ही पहचान बनाए रखना, ये तो तय है; ये पूर्वनियोजित है। बच्चा पैदा होता है, उसे क्या पता मुक्ति इत्यादि। पर उस पालना पता है, उसे दूध पता है, उसे मल-मूत्र पता है, उसे ध्वनियाँ पता हैं, उसे दृश्य पता है। अर्थात उसे जो कुछ पता है, वो सब संसार मात्र है।

तो बच्चे का मन किस ओर लगेगा शुरु से ही? संसार की ओर, शरीर की ओर। यही तो दुनिया है, और क्या?

इधर को जाएगा ही जाएगा बच्चा, इधर को जाएगा ही जाएगा जीव। फिर मुक्ति की ओर कैसे मुड़े? अगर संसार की ही ओर जाना पूर्वनिर्धारित है, तो फिर मुक्ति की ओर कैसे मुड़े? मुक्ति की ओर मोड़ता है तुमको तुम्हारा दुःख। और दुःख मिलेगा ही मिलेगा, क्योंकि जिस वास्ते तुम दुनिया की ओर जाते हो, दुनिया तुमको वो कभी दे ही नहीं सकती।

दुनिया की ओर जाओगे सुख के लिए, सुख मिलेगा ज़रा-सा, और दुःख मिलेगा भरकर। ले लो सुख! सुख थोड़ा ज़्यादा भी मिल गया, तो सुख के मिट जाने की आशंका हमेशा लगी रहेगी। ये कौन-सा सुख है जो अपने साथ आशंका लेकर आया है? ये कौन-सा सुख है जो अपने साथ इतनी सुरक्षा माँगता है, कि — सुख तभी तक रहेगा जब तक तुम सुख की देखभाल करो, सुरक्षा करो? और जिस दिन तुमने सुख की देखभाल नहीं की, तुम पाओगे की सुख चला गया।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org