मन की बेचैनी — सत्य का प्रमाण

मन की बेचैनी — सत्य का प्रमाण

नवद्वारे पूरे देही हँसो लेलायते बहि:। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥

वह परम-पुरुष प्रकाश के रूप में नवद्वार वाले देह रूपी नगर में अंतर्यामी होकर स्थित है। वही इस बाह्य-स्थूल जगत में लीला कर रहा है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १८)

आचार्य प्रशांत: नवद्वार तो समझते ही हो। शरीर में जो नौ निकास-छिद्र होते हैं वो नवद्वार हो गए। जिन नौ जगहों से ये शरीर संसार के साथ संपर्क करता है, वो नौ द्वार हो गए।

“नौ द्वारों वाले इस देह रूपी नगर में प्रकाश होकर स्थित है वह परम पुरुष।”

प्रकाश से क्या आशय है? प्रकाश से आशय है वो जिसकी उपस्थिति से चैतन्य इकाई को पदार्थ का ज्ञान हो जाता है पर जो स्वयं पदार्थ नहीं है। तो तीन चीज़ें हैं यहाँ पर — एक प्रकाश, दूसरा पदार्थ और तीसरा एक चैतन्य इकाई। मन है वो चैतन्य इकाई जिसमें शुद्ध चेतना नहीं है लेकिन फिर भी चैतन्य है। पदार्थ है शरीर और संसार। मन है चेतना, और पदार्थ है शरीर और संसार।

मन भ्रम में क्यों रह जाता है? मन समझ क्यों नहीं पाता कि पदार्थ क्या है, शरीर क्या है और संसार क्या है? क्योंकि तुम्हारे पास आँखें भी हों भले ही और सामने दीवार हो, कोई आदमी हो, कोई खम्भा हो, कुछ हो, फिर भी कुछ दिखाई नहीं देगा। बिलकुल तुम्हारे पास स्वस्थ आँखें हैं फिर भी तुमको ठीक सामने की चीज़ दिखाई नहीं देगी जब तक कि प्रकाश नहीं है।

इसी तरीके से परमात्मा या सत्य मन का प्रकाश है। बुद्धि रही आएगी, स्मृति रही आएगी, मस्तिष्क रहा…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org