मन किसे नहीं जान सकता?

मन किसे नहीं जान सकता?

यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम्।

यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥

(केनोपनिषद, अध्याय 2, श्लोक 1)

जिसने भी ये सोच लिया कि वो जानता है, उसके लिए ये बात तय है कि वो नहीं जानता।

प्रश्नकर्ता: जैसे कहा गया था की मैं जनता हूँ कि मैं कुछ नहीं जनता।

आचार्य प्रशांत: सुकरात ने कहा है ये। पर जानने वालों ने सुकरात को भी कहा है कि तुम्हें इतना भी कैसे पता कि तुम्हें नहीं पता। एक गहरी विनम्रता चाहिए ये कहने के लिए कि कुछ ऐसा है, कुछ है जरूर, और जो मैं ही हूं, पर जिसे जानने का उपकरण मन नहीं है, जो हुआ जा सकता है, पर जिसको मानसिक तौर से जाना नहीं जा सकता, जिसको जिया जा सकता है, जो मैं हूं ही, मेरी होना। ‘हुआ जा सकता है’ पर जिस को मानसिक तौर से न जाना जा सकता है, ना व्यक्त किया जा सकता है। थोड़े-बहुत इशारे डाल दिए जाए वो अलग बात है।

प्र: ऐसा क्यों है?

आचार्य जी: आप ज़मीन पर चल रहे हो। आपके हाथ में एक सर्च लाइट है। आपकी एक गाड़ी में चल रहे हो। गाड़ी में हेडलाइट लगी हुई है। हेडलाइट हमेशा किधर को फेकेगी रोशनी? x-y प्लेन में ही। आसमान में उड़ रही है मुक्त चिड़िया। हेडलाइट के द्वारा उसे देख लोगे?

मन एक डायमेंशन के भीतर काम करता है। x-y प्लेन में कुछ भी हो रहा हो, उसे देखने के लिए तुम्हें कहां होना पड़ेगा? ये xy-प्लेन है मान लो इसको हम क्यों देख पा रहे हैं? क्योंकि हमारी कुछ ऊंचाई है, हम z प्लेन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org