मन का बदलना ही है मन का पुनर्जन्म

प्रश्नकर्ता १: आचार्य जी, मन में एक प्रश्न बहुत उठता है। जैसे आज आपने कहा कि जिसमे आनंद मिले वही सत्य, तो जैसे मुझे पढ़ने में बड़ा आनंद मिलता है, सिर्फ पढ़ने में और मैं काम भी करता हूँ, जॉब भी करता हूँ। तो बहुत बार लगता है कि जो रोज हम काम करते हैं उसकी समय सीमाएँ, उसकी जो चीज़ें हैं, वो मेरे पढ़ने में बाधा बनती हैं। तो मुझे ये तो पता है कि हाँ, मेरा दिल कहाँ जा रहा है, पर फिर ये जो मन की कंडीशनिंग इस तरह हो रखी है कि अगर जीवन में कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, अगर गोल नहीं रखूँगा, मैं जॉब नहीं करूँगा तो मेरी आगे आने वाले जीवन में दिशा कैसे आएगी? फिर मैं अपने आप को बिना लक्ष्य के मैं कैसे अपनी आम जीवन को जियूं? इस चीज़ की वजह से कोई एक रास्ता चुनने में बड़ी तकलीफ होती है।

आचार्य प्रशांत: देखो, ये सवाल, ये चुनने या वो चुनने का नहीं है। पढ़ रहे हो, तब तक लगता है कि नौकरी बाधा है। चलो प्रयोग कर लो, नौकरी छोड़ के पढ़ने बैठ जाओ, पढ़ने में मन नहीं लगेगा। पढ़ने में भी मन तुम्हारा तभी तक लग रहा है जब पीछे नौकरी है। इसको ऐसे मत देखो कि या तो ये है, या तो वो है। ये वैसी ही बात है कि कहो कि मुझे भजन करने में बहुत रस आता है, लेकिन खाना खाने के लिए बीच में विराम लेना पड़ता है तो मुझे खाना पसंद नहीं है। ठीक है।

तुम बिना खाए दिखा दो कितनी देर भजन कर लोगे? तो खाना फिर भजन का हिस्सा हो गया ना? खाना फिर भजन का परिपूरक हो गया ना? खाने को फिर भजन ही जानो। खाना क्या है? दाँतों का भजन। जुबान नाचती है, दाँत गाते हैं। यही क्यों कहते हो जब तुम बंधे बंधाए गीत गा रहे हो तभी भजन कीर्तन है। ये जो आहार भीतर जा रहा है, इसके बिना भजन हो पाएगा क्या? नहीं तो कर लो प्रयोग, देख लो। जीवन में ये सब मिला जुला चलता है, एक है, उसको खंड खंड मत देखो, पहली बात।

दूसरी बात और समझना, पढ़-पढ़ करोगे क्या? पढ़ना जीवन थोड़े ही है, कहते हो कि पढ़ना अच्छा लगता है, पर नौकरी भी तो करनी है। पढ़ना ज़िन्दगी थोड़ा ही है। पढ़-पढ़ करोगे क्या?तुम पुस्तक पढ़ रही हो, वो कहती है, “घास का हरा रंग बड़ा जीवंत है।” अब वो हरा रंग तुमको पन्ने पर दिख जाएगा? या उसके लिए किताब बंद करके बाहर बागीचे में आना पढ़ेगा? जवाब दो। पढ़ पढ़ करोगे क्या?

पुस्तक पढ़ रहे हो, पुस्तक कहती है कि प्रेम सत्य का द्वार है, अब प्रेम तुम जानते नहीं। क्या करोगे? किताब को चूमोगे? किताब कभी बंद भी तो करनी पड़ेगी। कभी प्रेम के मैदान में कूदना भी तो पढ़ेगा। नहीं तो लिखा हुआ है “प्रेम सत्य का द्वार है” अब तुम अपने बिस्तर पर विराजे हुए हो, तुम तो द्वार भी भूल गए हो।

अब तुम गूगल कर रहे हो, “द्वार माने क्या?” “चित्र दिखाओ”

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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