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मन अनजाने से भी डरता है और जाने हुए से भी

मन, हर उस चीज़ से डरेगा जो सीमित है। क्योंकि जो कुछ भी सीमित है उसे खत्म हो जाना है। और मन बिना छवि बनाये जी नहीं सकता। तो मन कहने को तो, नाम मात्र को तो कह देता है कि ‘अननोन’ (अज्ञात)। ‘अननोन’ का विशुद्ध अर्थ तो यह हुआ ना कि उसके बारे में तुम कुछ नहीं जानते। अगर कुछ नहीं जानते तो ये भी कैसे जानते हो कि उसके बारे में नहीं जानते। मन, कहने को तो कह देता है ‘अननोन’, पर अननोन के बारे में भी वो नॉलेज रखता है। क्या नॉलेज? कि कुछ है। ऐसा है, कि वैसा है। कुछ न कुछ रखता है छवि। मन जो भी छवि रखता है वो सीमित होगी, और जो भी सीमित होगा वो मन को डरायेगा।

तो इसीलिए मन का डरना तय है, वो दाएँ चले तो डरेगा, बाएँ चले तो डरेगा। जिधर को भी चलेगा, अगर छवियों पर चल रहा है, तो डरेगा। मन देखे हुए से भी डरेगा, मन अनदेखे से भी डरेगा। क्योंकि जिस को मन अनदेखा कहता है उसको भी अपनी वृत्ति के चलते कुछ छवि तो दे ही रहा है, वरना कैसे कहता। आप क्या जब सुषुप्ति में होते हो तो किसी भी चीज़ को अनदेखा कह पाते हो? अनदेखा कहने के लिए भी तो चेतना चाहिए ना? जब आप सुषुप्ति में होते हो, गहरी नींद में, तो क्या कह पाते हो कि आपको कुछ नहीं पता? ये भी तो आप चेतना में ही कह पाते हो ना, जागृत अवस्था, कि आपको कुछ नहीं पता? यानी कि जो कुछ भी, चेतना के दायरे में घट रहा होगा वो डर ही होगा।

चेतना मात्र ही डर है, क्योंकि चेतना द्वैत है। चेतना में हमेशा जो हो रहा होता है, उसमें मैं और संसार दो होते हैं। जहाँ ये दो आये, तहाँ डर है — “द्वितीयाद्वै भयं भवति”। दो हुए नहीं कि डर हुआ। यानी की चेतना आयी नहीं, कि डर हुआ। चेतना में ही कहते हो कि जानता हूँ, और चेतना में ही कहते हो, कि नहीं जानता हूँ। कहोगे कि — जानता हूँ, तो भी डर, कहोगे — नहीं जानता हूँ, तो भी डर, क्योंकि हैं तो दोनों चेतना में ही घटी हुई घटनाएं। चेतना ही डर है, द्वैत मात्र डर है।

पूरा वीडियो यहाँ देखें।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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