मदद या अहंकार?
--
आचार्य प्रशांत (आचार्य): देखिये, रमन महर्षि थे। तो लोग पूछते थे कि-“आप यहाँ पड़े रहते हो मंदिर में, बाहर निकल कर के कुछ करते क्यों नहीं?” और वो जिस समय पर थे, पिछली सदी का जो पूर्वार्थ था, सन से 1910 से 1940-1950 तक जीए थे। अब उस समय पर भारत में हज़ार तरह की समस्याएँ थीं, गरीबी भी थी, अशिक्षा भी थी, जातिवाद भी था, धार्मिक दंगे भी हुए, स्वतंत्रता की लड़ाई भी चल रही थी। ये सब चल ही रहा था। तो हज़ार मुद्दे थे जिन पर लोगों से मिला जा सकता था, बातचीत की जा सकती थी। समाजिक कुरीतियाँ थीं। उनको लेकर लोगों से मिला जा सकता था। तो लोग कहते थे कि, “आप यहाँ क्या बैठे रहते हो? बाहर निकल कर के कुछ करते क्यों नहीं? मदद करो।” तो वो कहते थे कि, “तुम्हें ये कैसे पता कि यहाँ बैठे-बैठे तुम्हारी मदद नहीं कर रहा हूँ। तुम बस कार्य-कारण को जानते हो। तुमको लगता है कि तुम्हारे करने से होता है जबकि हो कैसे रहा है, उसके दांव-पेंच बिलकुल अलग हैं। वो पूरी टैक्नोलोजी ही अलग है। वो करने वाला ही सिर्फ़ जानता है।” तो एक तो (तरीका) ये है कि मैं ऐसी हालत में पहुँच जाऊँ, मैं ऐसी स्थिति में पहुँच जाऊँ कि मेरा होना ही दुनिया भर की मदद है। मुझे एक कदम भी विशेषतया मदद के लिए बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं कहूँ कि, “मैं ये काम किसी की मदद के लिए कर रहा हूँ।’’ हम जो भी करते हैं वो सब की मदद होती है। हमारा होना ही मदद है।
तो वो तो आखिरी स्थिति है। उससे पहले की जो मदद है, उसमें सूक्ष्म अहंकार रहता है। उसमें ये अहंकार रहता है कि, “मैं मदद कर सकता हूँ” और जब भी तुम ये दावा करोगे कि, “मैं मदद कर सकता हूँ,’’ तो उसमें चोरी-छिपे ही सही, थोड़ा बहुत ही सही, लेकिन ये भाव भी आएगा ही, “मैं श्रेष्ठ हूँ।” मुझमें योग्यता है मदद करने की और ‘मैं’ मदद कर रहा हूँ, ‘मैं’। तो उसमें अहंकार रहेगा ही रहेगा। वो अहंकार इसलिए रहता है क्योंकि अभी तक तुम खुद पूरे तरीके से मुक्त नहीं हुए हो। तुम घिरे हुए थे, तुम अँधेरे में थे। तुम्हें उजाला मिला है। तुम्हें याद है अभी भी अच्छे से कि, अँधेरे ने बड़ा कष्ट दिया था। तुम्हें उजाला मिला है। तुम इसको बांटना चाहते हो। तुम पूछो- “कि फिर इसमें अहंकार कहाँ है? आप क्यों कह रहे हो कि इसमें अहंकार है?” अहंकार है। अहंकार ये है कि तुम्हें उजाला मिला है लेकिन तुम अभी भी ये समझ रहे कि वो अँधेरा असली था। तुम अभी भी ये समझ रहे हो कि उस अँधेरे को मिटाने की ज़रूरत है। ये मैं उस आदमी के सन्दर्भ में कह रहा हूँ जो कोशिश कर रहा हो दूसरों की मदद करने की। समझ रहे हो? वो यही तो कर रहा है न? उसको उजाला मिल गया है, वो दूसरों में भी उसी उजाले को बांटना चाहता है। वो कह रहा है कि-“भाई देखो। बड़ी मज़ेदार चीज़ है। मुझे भी मिली है तुम्हें भी मिले।” लेकिन एक भूल तो कर ही रहा है अभी भी। क्या? वो ये भूल कर रहा है कि अभी वो ये पूरी तरह मानने को तैयार नहीं है कि क्या…