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भ्रांत कौन, और किसके लिए?

भ्रांत कौन, और किसके लिए?

अंतर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः। भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्-तादृशा एव जानते॥ — अष्टावक्र गीता (१४- ४)

अनुवाद : भीतर से निर्विकल्प और बाहर से स्वच्छंद आवरण वाले, प्रायः भ्रांत पुरुष जैसे ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं ।

प्रश्न : यह क्यों कहा गया है कि जो ज्ञानी है, जो योगी है, वो एक भ्रांत मनुष्य की तरह ही भ्रमण करता हुआ दिखाई देता है ?

वक्ता : हम ‘भ्रांत’ किसे कहतें हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि हम कौन हैं । संसारी मन भ्रांत उसे कहता है जो संसार के ढर्रों पर नहीं चलता । हम उन्हें भ्रांत कहतें हैं जो हमारे जैसे ढरों पर नहीं चलते। ढर्रों पर चलने के लिए भी एक योग्यता चाहिए, मन का थोड़ा सधा होना ज़रूरी है अन्यथा आप ढर्रों पर भी नहीं चल पाएँगे ।

एक छोटा बच्चा होता है, वो सीधा नहीं चल पाता क्योंकि उसके क़दमों में ज़रा भी ताकत नहीं है । आप छोटे बच्चे से अपेक्षा करें कि वो एक सीधी रेखा में चलता जाये, तो आप पाएँगे कि यह नहीं हो रहा है। ढर्रे पर चलने के लिए भी थोड़ी ताकत, थोड़ी योग्यता चाहिए ।

अगर सभी यहाँ तय करें कि आप को रोज़ सुबह पाँच बजे उठना है, तो आप पाएँगे कि बहुत सारे लोग इस प्रण में असफल हो जाते हैं । ढर्रा ही है, रोज़ सुबह पाँच बजे उठना है । पर आप अच्छे से जानते हैं कि यह प्रण कितनी बार टूटा है। हम अपने संकल्पों को भी पूरा नहीं कर पाते । हम जो ढर्रे बनाना भी चाहते हैं, हम उनको भी नहीं बना पाते । यही कारण है कि तथाकथित अच्छी आदतें भी हम…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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