भूले मन..!
भूले मन..! समझ के लाग लदनियां..! थोड़ा लाद..अधिक मत लादे..टूट जाये तेरी गर्दनिया..!..
भूले मन…भूखा हो तो भोजन पा ले..आगे हात न बनिया…!
भूले मन….प्यासा हो तो पानी पी ले..आगे घात न पनियां…
भूले मन….कहे कबीर सुनो भाई साधो..काल के हाथ कमनियां…भूले मन…
~ कबीर साहब
आचार्य प्रशांत: क्या है मन की भूख, क्या है मन की प्यास? क्या पाकर मन वास्तव में शांत हो जाएगा?
जो कुछ तुम सोचते हो पाने की, उसको तो पा पा कर भी आज तक मन शांत हुआ नहीं।
जो भी हमने पाने की सोची, वो या तो कोई वस्तु है, या व्यक्ति, या वस्तु और व्यक्ति से ही आया हुआ कुछ।
जब भी हमने पाने की सोची, तो यही सोचा कि अभी नहीं है वो पास, और कभी और मिल जाए काश हमें। आगे कभी।
जब भी हमने पाने की सोची, तो अतीत के नामों और धारणाओं के मध्य बैठ कर ही सोचा।पुरानी सोच। पीछे की।
आगे पाछे के खेल में ही गड़बड़ हो जाती है। ‘आगे घात न पनियां…’
हमारा सारा पाने का खेल हमें समय — आगे पाछे — के हाथ का खिलौना बना देता है — ‘काल के हाथ कमनियां…’
कबीर कह रहे हैं, काल के गुलाम न रहो। अपने कालातीत स्वभाव को पहचानो। क्या है जो काल से मुक्त है?
समर्पण का क्षण काल से मुक्त है। जिस भी क्षण मन आगे पाछे की फ़िक्र छोड़ तत्काल में ही रम जाए, वही क्षण काल से मुक्त हो गया।