भूखे मर जाना, गुलामी की रोटी मत खाना

प्रश्न: आचार्य जी, युवा लोगों को सबसे पहले अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए, या मुक्ति पर ध्यान देना चाहिए? जब अंतिम लक्ष्य मुक्ति है तो क्या उसके बारे में प्रयत्न करते रहना चाहिए या नहीं?

आचार्य प्रशांत: दोनों अलग-अलग आयाम की बातें हैं, बेटा।

शरीर है न तुम्हारे पास? शरीर है तो खाते भी होगे। तो जीविका कहीं से तो कमानी पड़ेगी न? इसीलिए जीविका का प्रश्न हल्के में नहीं लिया जा सकता। और जिस युग में तुम जी रहे हो, उसमें मात्र तुम्हें खाने को दो रोटी ही नहीं चाहिए, तुम्हें थोड़ा-बहुत और भी कुछ चाहिए। सड़क पर नहीं जी पाओगे। जंगल आदमी ने सब काट दिए, तो जंगल भी कैसे जाओगे? पहले तो था कि जंगल जाएँगे, नदी में नहाएँगे। अब नदी तो नाला बन गई है। नहाओगे भी कैसे अगर पैसा नहीं है? बताओ, कब नहाओगे? या इंतज़ार करोगे कि अभी अप्रैल चल रहा है और मानसून आने ही वाले हैं दो महीने में! और उसमें भी अब एसिड रेन होती है; गये थे नहाने, छाले लेकर आ गए।

तो सिर्फ़ जीने के लिए ही सही, कुछ तो कमाना पड़ेगा न?

तो बात ये नहीं है कि, “मुक्ति पर ध्यान दें या ‘करियर’ पर ध्यान दें?” शरीर लिए हो तो आजीविका के प्रश्न का उत्तर तो तुम्हें देना पड़ेगा। हाँ, आजीविका तुम इस तरह से चलाओ कि वो मुक्ति में सहायक रहे, वो मुक्ति की तरफ़ उन्मुख रहे, कि आजीविका भी चल रही है लेकिन रोटी ऐसे नहीं कमा रहे कि राम की ख़िलाफ़त करनी पड़ रही है। दोनों काम एक साथ हो रहे हैं: खाना भी चल रहा है, और ख़िदमत भी चल रही है। खा भी रहे हैं और ख़िदमत भी कर रहे हैं।

जो ग़ुलामी की रोटी खा रहा हो, उसे परम मुक्ति की बातें शोभा ही नहीं देतीं। परमात्मा भी मुस्कुरा कर पूछेगा कि — “रोटी तक तो तू ग़ुलामी की खाता है, और बातें करता है मुक्ति की!”

(एक श्रोता की ओर इंगित करते हैं) समझ रही हैं?

ये बाजू क्यों दिए गए हैं? ये किसलिए हैं शरीर में? श्रम करने के लिए हैं न? तो जिसने पेट में आँत दी है, जहाँ भूख उठती है, उसी ने हाथ में माँसपेशियाँ भी दी हैं, जो खाना अर्जित कर सकती हैं। अब खाना अर्जित करो-न-करो, बाजुओं का इस्तेमाल करो-न-करो, आँतों का इस्तेमाल तो रोज़ करते हो, कि नहीं करते? या तो ये कह दो कि हम काम नहीं करते और भोजन भी नहीं करते। पर नहीं साहब, आँत का इस्तेमाल तो रोज़ करते हो, और बाजू का इस्तेमाल करते हुए कहते हो, “क्यों करें? जीवन का लक्ष्य तो मुक्ति है, तो श्रम क्यों करें?” मत करो श्रम, खाओ भी मत!

और मैं नहीं कह रहा हूँ कि पूँजीवादी हो जाओ, धन्ना सेठ हो जाओ, लाखों-करोड़ों कमाओ, पर इतना तो कमाओ कि रोटी मात्र के लिए तुम्हें सिर न झुकाना पड़े। इतना तो कमाओ कम-से-कम। लालचवश मत…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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